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क्रमांकविचार
1.वही एक जो सत्य है- सुगन्ध की तरह सबकी आत्मा में निवास करता है, जो उसे जान लेता है - वे उसी का आश्रय ग्रहण करते हैं।
2.बुद्धि के द्वारा विज्ञजन कई प्रकार के कार्य बनाते हैं और अविज्ञजन कई प्रकार के कार्य अकारण ही बिगाड़ देते हैं।
3.भला भलाई क्यों त्याग दे, चाहे कितनी ही कठिनाई हो, राही को तो आपना लक्ष्य प्राप्त करना ही होता है।
4.स्थिर भाव से योग चित होने से एकांत ध्यान में जो अनुभव प्राप्त करेंगे वे आनद देने वाले होगें।
5.जब पारब्रहम् में अहंकार प्रकट होता है, तो संसार प्रकट होता है - किन्तु जब जीव में अहंकार आता है तो विनाश होता है।
6.हर के विभिन्न रूपों में अनेक अनंत रहस्य हैं - शिवरूप शांति के प्रतीक हैं और शंकर प्रलयंकर हैं।
7.जब तक हृदय शुद्ध नहीं होता तब तक प्रार्थना करने से क्या लाभ।
8.आशुतोष को भजते रहो।
9.सत्संगति अध्यात्म बल को बढ़ाती है।
10.परमाश्रय प्रभु को छोड़ कर माया मोहित हो किसे खोज रहे हो।
11.कलुषित आत्मा जन्म के चक्र में पड़ा रहता है।
12.तदाकार होकर तादात्मय भाव में भावित जन ही प्रेमी है।
13.आत्मारूपी सूर्य और मनरूपी मयंक को कल्मषरूपी ग्रहण न लगने दें।
14.सत्य असत्य दो मार्ग हैं - एक परम तत्व की और ले जाता है दूसरा रसातल की और।
15.मन तो चंचल है - उसकी वृत्तियाँ भी उसी की तरह हैं - जो कहीं नहीं ठहरहती।
16.देव-दुर्लम यह शरीर कामनाओं में फंस कर आशक्त हो जाता है।
17.एक वही कीर्तनीय हैं वन्दनीय हैं।
18.बिना विचारे किये कर्म सुख नहीं देते।
19.विषयाशक्त को मोक्ष कहाँ।
20.प्रेमिल व्यवहार से सभी को वश में किया जा सकता है।
21.भाव विव्हलता से प्रभु विभोर होते हैं।
22.धन्य हैं वो जो धर्मारूढ हैं।
23.निर्मम निंरहकार ही सत्य की प्राप्ति कर पाता है।
24.भाव शून्य हृदय ही - मिलाता है जगत के सत्य से।
25.कर्मबन्धन मोहपाश भी है।
26.वे महान हैं जो अपने का लघु जान कर दूसरों की सेवा प्रेम से करते हैं।
27.भगिनिओं के लिए जो न्योछावर हो, वे महान है।
28.शुद्ध विचार विकारी ह्रद्य को स्वच्छ करने का साधन हैं।
29.वही जीव संक्षम पुरुष विभिन्न रूपों में प्रकट होता है।
30.निर्मम निरहंकार ही भगवान को प्राप्त कर सकता है।
31.सत्य को निर्मलता से व्यवह्रत करें।
32.नींद से कब जागोगे नित्य भौर नया गीत गुनगुनाती है - उसे सुनो।
33.तन की ही नहीं अपितु मन की पवित्रता भी आवश्यक है।
34.रे मन विवशता तो तेरी कायरता का रूप है जो एंद्रियसुख लिप्सा के कारण ही है।
35.हे प्रभु - तुम्हारी तुम जानो मुझे इस संसार में अपनी भी खबर नहीं है।
36.रे मन दुष्टता त्यागेगा तभी अभीष्ट की प्राप्ति होगी।
37.चिन्तन की धारा सतत रहे - तो सन्मार्ग मिलेगा ही।
38.किस चीज़ का अहम् पाल कर बैठे हो, प्राण भी तुम्हारे अपने नहीं हैं।
39.अक्षय तृतीया अक्षय वट की तरह है इसदिन जो भी इच्छा करो वह चाहे विमु लोक की भी हो पुण्यवृत कर्मों से पूर्ण हो जाती है।
40.सत्य एक है - उसका ही वर्णन अनेक रूपों में किया गया है।
41.विवध तापों के नाश के लिए रामबाण है - राम नाम।
42.ज्ञान कर्म सुक्ष्म शरीरों के प्रवाह हैं जिनसे आत्मा प्रभावित रहती है।
43.आत्माभिमानी शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है।
44.जो तुम्हें चाहिए वह तुम्हें अवश्य मिलेगा पर तुम्हें क्या चाहिए यह तो तुम्हें पता ही नहीं।
45.मन-बुद्धि में सामन्जस्य बना कर रखें।
46.जो जन आशा निराशा के बन्धन तोड़ देता है वही सम्यक् बुद्धि कहलाता है।
47.यदि जीवन में उन्नति चाहते हो तो पहले भ्रम का भूत भगा दो।
48.अपने आचरण को पवित्र रखने से आत्मप्रकाश स्वयं प्राप्त होता रहता है।
49.कर्म सिधांत के समक्ष सभी सिधांत फीके हैं।
50.दूसरों के दोष न देखो अपने आप में भी झांक लो।
51.दुःखभिमानी अपने दुःख को बड़ा समझकर ही अधिक दुखी होता है।
52.दुःख-सुख चित् की भावना पर आधारित रहते हैं - दोनों में चित् की अवस्था को द्रढ़ रखना श्रेयस्कर रहता है।
53.जो तुम हो वही सब हैं फिर द्वेष किससे कर रहे हो।
54.मन की आखें खोल कर देखो और अच्छे बुरे की पहचान करो।
55.तुम्हारी वाणी जब किसी के ह्रदय पर आघात करती है तो तुम्हें पाप की प्राप्ति होती है।
56.प्रभु को निर्मल मना ही प्रिय है।
57.चित् तभी शान्त रहेगा जब उसकी वृतियां नष्ट होंगी।
58.आकाश कुसुम तोड़ने की अपेक्षा - धरती के फूलों से ही सुगन्ध प्राप्त करने की इच्छा करो।
59.मस्तिष्क में क्यों भ्रांतियाँ पाल रहे हो खुला मन और मस्तिष्क उम्र बढ़ाने में सहाय होता है।
60.उसी एक का आश्रय प्राप्त कर जो तुम्हें जीवन दान दे रहा है।
61.मित्र समय पा कर घात कर देते हैं - शत्रु प्रतिघात करते रहते हैं - इस संसार प्रपंच में सब स्वार्थ ही हैं - इसलिए सभी से सावधान रहो।
62.व्यर्थ क्यों प्रलाप कर रहे हो - धर्म के मर्म को जान कर फिर उस पर चलने की बातें करो।
63.संसार वृथा है मिथ्या है - फिर क्यों कपट पाखण्ड फैला रहे हो।
64.जिसका चिंतन शुद्ध व प्रवुद्ध है वहीं संतोष को प्राप्त करता है।
65.संसार के सभी धर्मों का मूल रूप तो एक ही है।
66.निस्प्रद भाव से परम सुख प्राप्त होता है।
67.धर्म रूह को सुवासित करने के लिए है न कि उसे गन्दा करने के लिए।
68.रे मन भजन से तेरा उद्धार होगा, और प्रंपच वृथा है।
69.सर्वस्व प्रभु चरणों में अर्पित कर दो।
70.इस संसार में अकारण ही शत्रु बन जाते हैं पर तुम किसी को शत्रु न समझो।
71.सब का ध्येय तो एक ही है, मार्ग बेशक भिन्न हैं।
72.आपने में झाँक कर अपनी मन की क्रियाओं को देखते रहो और उनसे निर्लेप रहो, तुम्हें शांति प्राप्त होगी।
73.गुणों का तब पता चलता है जब अवगुणों से युद्ध होता है।
74.ऊँचे विचार सवलता की निशानी हैं तुच्छ विचार दुव्रल्ता को प्रकट करते है।
75.भाव की निर्मलता में ही सुख प्राप्त होता है।
76.फूल का आकर्षण उसकी मुस्कान से है, फिर तू रुदन करके किसे आकर्षित करेगा।
77.जब तक तू अपनी चिंता करता रहेगा, सर्वेश्वर तभी चिंता नहीं करेगे।
78.शांत रहने से सुख प्राप्त होता है दुःख की प्रतीति तो अधीरता में ही है।
79.मत भूल समष्टि से ही व्यष्टि है व्यर्थ इतराना छोड़ उस परमेष्टी का भजन कर जिनसे दोनों का अस्तित्व है।
80.प्राप्त का भोग करो अप्राप्त की चिन्ता क्यों करते हो।
81.सत्य रूपी वन को पार करने से ही सन्तोष प्राप्त होता है।
82.केवल आज को ही अपना समझो और उसका सदुपयोग करो।
83.सत्य को जिसने जान लिया वह ही अहंकार से मुक्त आत्मा होता है।
84.विश्रान्ति संसार में कहाँ ढूँढ रहे हो?
85.सब कुछ तुम्हारा ही तो है पर तुम हो कौन? कभी सोचा भी है तुमने।
86.प्रभुप्रेम - सत्य ज्ञान के बाद की स्थिति है।
87.मानव सदगुणों से ही महान कहलाता है।
88.ऐसा कौन है जो क्रोध् की अग्नि में नहीं जल सकता?
89.हृदयदीप जब ज्ञान रूप में प्रकाशित होता है तभी स्व पन का बोध् होता है।
90.नमन उस दूत को जिसने संसार में करूणा और दया का साम्राज्य स्थापित किया।
91.तम के पश्चात प्रकाश, दुख के पश्चात सुख, यह प्रकृति का नियम अटल है।
92.मौन से बढ़ कर तप कौन है, इसीलिये ज्ञान वान मौन धारण कर विचरते हैं।
93.आनन्द ज्ञानन्द्रियों से परे की बात है।
94.जीवन का रहस्य जानना चाहते हो तो देहाघ्यास का त्याग करो।
95.भाग्य से अधिक कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता।
96.नाम जप सहज योग है।
97.स्व को जानना ही ज्ञान है।
98.काल की परिधी से बाहर जाकर ही महाकाल से मिलन सम्भव है।
99.अपकार नहीं उपकार करो।
100.सब कुछ प्राप्त नहीं हो सकता जितना प्राप्त हो उसी में सन्तोष करना चाहिए।
101.सन्तोष रूपी धन परमधन है।
102.सकल सृष्टि तुम से ही तो है।
103.द्वेषाग्नि स्वयं को ही जलाती है किसी अन्य को नहीं।
104.हारिये नहीं जीतिये।
105.तुम कहां किसे ढूंढ रहे हो - आगे क्या रखा है? वह तो तुम्हारे पास ही है बस उसे पहचान लो।
106.तुम्हें यह आभास होना कि तुम हो, मिथ्या है भ्रम है - इसे छोड़ देने पर ही सत्य प्रातिभसित होगा।
107.प्रेम का अर्थ है - प्रियतम को सर्वस्व समर्पण।
108.आत्मा एक है जीवात्माएं अनेक।
109.तुम जो चाहते हो वह सब तभी प्राप्त होगा यदि तुम्हारे भाग्य में है।
110.शुभ कर्म करना ही जीवात्मा का धर्म है।
111.यदि समस्या को सामने रखोगे तो पहाड़ दिखाई देगी।
112.जो तुम्हें दिखाई दे रहा है सोचो क्या वह वास्तव में है।
113.जननी जनक से यदि जुड़े रहे तो गुरू को कहां पाओगे।
114.संसार विचित्र है - यदि कुछ पाना है तो कुछ छोड़ना भी पडे़गा।
115.आने वाला कल कब आया है - वर्तमान ही जीवन है।
116.उन धर्मो का त्याग करो - जो तुम्हें संकीर्ण बनाते हैं।
117.मानव मात्र का एक ही धर्म हो - सेवाधर्म, परहित चिन्तन।
118.संसार में अपने अस्तित्व को मिटा कर ही प्रभु प्राप्ति कर सकते हो।
119.दीर्घायु जीने से क्या होगा - पुष्प को तो इसकी कल्पना भी नहीं करनी चाहिए।
120.आज तुम्हारा है - कल किसी और का और परसों तो ना जाने किसका हो।
121.मार्ग पड़ा रहता है चलते तो राही ही हैं - संसार यहीं रहेगा तुम चलते जाओगे।
122.तुम अपने आप को यदि पहचान लोगे तब तुम सब कुछ प्राप्त कर लोगे।
123.श्री समृद्धि और वैभव के बिना भी निर्विकार आत्मा सुख व आनन्द की प्राप्ति कर लेता है।
124.क्षण भर की मुस्कान भी जीवन में आनन्द बिखेर जाती है।
125.काम प्रिय निष्काम यदि हो तो सफलता के सोपान पर चढ़पाता है यह सत्य है - अर्द्धसत्य नहीं।
126.सद विचारों से ही मनुज की महानता है।
127.जीना है तो हँसते - हँसते जीओ।
128.आत्मा को जान कर ही सर्वज्ञता प्राप्त की जा सकती है।
129.दिव्यालोक दिव्य ध्यान से प्राप्त हो सकता है।
130.अमर्ष नहीं तभी हर्ष प्राप्त होता है|
131.जिस प्रकार प्रकृति अजय है उसी तरह प्रवृति को जीतना भी सरल नहीं है।
132.परमात्मा का भजन साधनों में श्रेष्ठ है।
133.जिस प्रकार आसमान को बादल ढक लेते हैं उसी प्रकार कुत्सित भावनाएँ ह्रदय रूपी दर्पण को ढक देती है।
134.अज्ञान शत्रु है।
135.अन्ध्कार प्रकाश से नष्ट होता है, अज्ञानान्ध्कार ज्ञान के प्रकाश से।
136.प्राप्त का सुख लाभ ले लेना चाहिए, अप्राप्त की चिन्ता में न रह कर, प्रयास रत रहना अच्छा है।
137.सत्य ही श्रेयस्कर है।
138.मध्यम मार्ग भी श्रेष्ठ है।
139.प्रयत्न करो ह्रदय को विमल भाव प्राप्त हो इस हेतु जप करना चाहिए।
140.श्यामरंग पर कोई रंग नहीं चढ़ता श्याममयी भक्ति जिसके हृदय में है उस पर किन्हीं अन्य उपासनाओं का रंग नहीं चढ़ता।
141.प्रेम त्याग का ही दूसरा नाम है।
142.प्रियतम के विरह से कहीं अधिक व्याकुलता प्रभु को पाने की हो।
143.सब कुछ व्यर्थ है यदि उसका भजन नहीं किया।
144.गुरू की शरण में गरूर कैसे रह सकता है?
145.विनम्रता ही सत्पुरूषों का आभूषण है।
146.प्रेम समर्पण भाव है।
147.सत् चित् ही आनन्द का साधन है।
148.प्रेमाभक्ति प्रभु के लिए एक मात्र वशीकरण है।
149.अशुभ भी शुभ हो जाता है यदि प्रभु का संबल हो।
150.वेदान्त में खो जाओ या साँख्य योग में पर भक्ति के बिना तादात्मय होना कठिन है।
151.निराशा जहाँ हूई मनुष्य की हार हो गई।
152.आनन्द - ढूंढ रहे हो? उसकी खोज हृदय में करो।
153.सत्य का ज्ञान हो जाने पर निराशा तिरोहित हो जाती है।
154.चाहे कितनी ही कठिनाईयाँ आवें अपने लक्ष्य को जो प्राप्त कर लेता है वही पुरूष है।
155.आखिर कब तक प्रभु से दूरी बना कर रखोगे अन्तिम शरण तो वही हैं।
156.भक्ति सरिता में डुबकी लगाने से अमृत की प्राप्ति होती है, जिसे पीने से जीवात्मा अखण्ड आनन्द की प्राप्ति कर लेता है।
157.यदि सुख चाहते हो तो किसी को कलेश उत्पन्न न करो।
158.सर्वथा साधनहीन प्राणी भी, जिनकी एक मात्र शरण ग्रहण कर भव से पार हो जाता है, ऐसे श्री राम के चरणों में कोटिशः नमन।
159.विकार रहित ही तदाकार हो पाता है।
160.तदात्मय भाव से ही प्रेम प्रकट होता है।
161.सियाराम जी का ध्यान जप मनन सब रोगों का रामबाण है।
162.चाहे जैसे भजो वही साकार भी है निराकार भी।
163.अपने उच्च विचारों से ही प्राणी महान बनता है।
164.भक्ति परम सुखदायिनी है।
165.आशा भी एक बन्धन है।
166.प्रभु ने प्रत्येक वस्तु में अवर्णननीय सौन्दर्य प्रदान किया है।
167.निराशा को भी जीवन में स्थान मिल ही जाता है।
168.क्यों व्यर्थ की आशाओं को पाल रहे हो यह क्या कभी पूर्ण हो सकती हैं?
169.भक्ति स्वयं में पूर्ण है।
170.आसमान का जैसे कोई रंग नहीं होता उसी प्रकार आत्मा पर भी कोई रंग आरोपित नहीं किया जा सकता।
171.चित अंहकार से पृथक रहकर ही शान्ति प्राप्त कर सकता है।
172.बाहय आडम्बर का त्याग रखना चाहिए।
173.प्रेमाभाव सर्वोपरि है।
174.परमात्मा अनुभवातीत है।
175.भक्ति से भक्ति ही प्राप्त होती है।
176.क्षमा वीर पुरुषों का आभूषण है।
177.आशीर्वाद का भी जीवन में अपना अलग महत्व है।
178.दुष्ट वाणी बाण से भी अधिक घातक होती है।
179.प्रभु सबके हैं।
180.प्रभु को पाना है तो हृदय को सभी चिन्ताओं से खाली रखो।
181.वासनाएं संस्कारों से अधिक इन्द्रियों द्वारा प्रेरित होती हैं - प्रभु से प्रेमाशक्ति होने पर वह कुछ नहीं बिगाड़ सकती।
182.यदि आसक्ति ही रखनी है तो प्रभु से रखो।
183.राम नाम सभी भव बन्धनों से छुटकारा दिलाता है।
184.आज का मुल्य है कल का नहीं।
185.अविकारी मन में ही सन्तोष आता है।
186.आत्मरूपी दर्पण को स्वच्छ रखो।
187.शान्ति प्राप्ति का एक उपाय यह भी है कि अपने आप को मूर्ख समझो।
188.संसार के प्रति अरूचि ही निरासक्ति है।
189.आशा निराशा रूपी पंखों के सहारे उड़ते उड़ते यह जीवन यों ही बीत जाता है।
190.जो निर्मल हृदय है वही आनन्द प्राप्त कर पाता है।
191.वे धन्य हैं जो हरि चरणों की कृपा से ओत प्रोत हैं।
192.एक निष्ठ प्रेम ही आनन्ददाता है।
193.श्रेय प्रिय से ही सत्पथ की प्राप्ति होती है।
194.विषयाग्नि विषयक के तन मन ही नहीं आत्मा तक को दग्ध कर देती है।
195.विकार रहित आत्मा ही लीनता को प्राप्त होता है।
196.राम नाम परमौषधी है।
197.विवेक से संसार सागर पार करो।
198.सत्य सर्व शक्तिमान है।
199.ज्ञान से भक्ति महान है।
200.देहाध्यास का घूटना ही मुक्ति है।
201.उस असीम की कोई सीमा तो होगी।
202.स्वर्ग नर्क से परे का विचार ही सत्यलोक की प्रप्ति की ओर पग है।
203.समान धर्म समान विचार के लोग भी उस परम सत्य का वर्णन विभिन्न रूपों में करते हैं।
204.उस कृपा कुंज की कृपा न मिले तब तक कुछ प्राप्त नहीं होता।
205.मानव मात्रा की सेवा करो उससे सब कुछ प्राप्त हो जाता है।
206.दर्पण में अपना मुख क्या निहारते हो - सभी जीवों की आँखों में अपनी छवि की खोज करो।
207.सभी नाम उसी एक के हैं और उसी एक को सम्बोधित करतें हैं।
208.यह संसार भी विचित्र है जिसमें कोई अधिक देर रह ही नहीं सकता।
209.आश्चर्य है संसार में प्राणी किस सुख की खोज में रहते हैं।
210.बुद्धियोग पर चलने से निर्मल भाव की प्राप्ति होती है।
211.सम व्यावहार ही सुख का आधार है।
212.व्यथित क्यों होते हो - संसार सागर तो तरना ही पड़ेगा।
213.फूल की मुस्कान से सीखो काँटों में हँस कर रहना।
214.सूर्य का ताप तो एक सा ही रहता है सर्दी में सुख देता है गर्मी में दुःख।
215.अपने भीतर झाँकोगे तो पाओगे वहाँ प्यार ही प्यार है - नफरत नहीं।
216.तुम जो हो - वही अपने आप को दिखओ।
217.आनन्द भीतर की वस्तु है - बाहर की नहीं।
218.पुरूषार्थ जो करते हैं फल भी वही पाते हैं।
219.कामनाओं से निवृति भी मोक्ष है।
220.अभिलाषा कामना युक्त देह नरकों की ओर बढ़ता है।
221.अभिलाषा कामना यदि संसारिक है तो त्याज्य है।
222.जब कामनायें निशेष हों तभी आनन्द की प्राप्ति होती है।
223.धर्मशील जन सभी दुःखों से निवृत रह सकता है।
224.गुरू ज्ञान देता है - शिष्य उस पर विवेक से चलता है तभी लक्ष्य की प्राप्ति होती है।
225.सुख दुःख मन की अवधारणा मात्र हैं।
226.ज्ञान और विवेक विहीन जीवात्मा अपना उद्धार कैसे कर पायेगी?
227.ईश्वर साक्षी रूप में सब देखता है।
228.परमपिता तो वही एक है चाहे उसे जो भी सम्बोधन दो - ईश्वर, गॅाड या अल्लाह।
229.कामनायें अनन्त हैं - मन एक।
230.ईश कृपा विहीन जीव नष्ट होता रहता है।
231.क्रोध मन को तो जलता ही है, बुद्धि का नाश भी कर देता है।
232.बेसुरा संगीत भी जिसे आनंद दे - वह ब्रह्मानंद को पाता है।
233.कला ह्रदय की संवेदना है।
234.आजीवन कठोर तप को धारण करने से ही सत्य ज्ञान की प्राप्ति होती है।
235.मन, मस्तिष्क, वासना, कामना शून्य रहें तभी आनन्द की उपलब्धि होती है।
236.कर्म के साक्षी तुम स्वयं ही हो कोई और नहीं।
237.तृष्णा का अन्त कहाँ ?
238.सत्य ही है जो संसार का धारक है।
239.प्रेम का तत्व जाने बिना प्रियतम से प्रेम कैसे होगा?
240.सभी कार्य करने से पूर्व भलीभान्ति विचार करलो।
241.श्रेष्ठतम भी संसार में तुच्छ है।
242.लक्ष्य प्राप्ति तभी सम्भव है यदि ध्येय सुनिश्चित रहे।
243.काम - सुख तो तुम्हारे भोग है, लक्ष्य नहीं है।
244.अधिक की लालसा सभी सुखों का अन्त है।
245.भाग दौड़ के युग में तुम विश्राम कहाँ पाओगे, थकोगे और गिर जाओगे।
246.कुप्रवृतियों को रोकना संयम का काम है।
247.मनोभिलाषा रख कर यदि जीव कर्म करता है, तो उसे कर्म बन्धन स्वीकार करना ही पड़ेगा।
248.जो विचारहीन प्राणी होते हैं उनसे दूर ही रहना चाहिए।
249.दासत्व तभी जब अहम् नहीं।
250.जिसे उसका सहारा नहीं वह आशंकित ही रहेगा।
251.सत्य का अहंकार भी त्यज है।
252.अहंकार का वीज नाश करने के लिए आत्मतत्व को जानना आवश्यक।
253.अन्तर में देखो क्या तुम वहां हो?
254.जब सत्य उदघाटित होता है तो असत्य के पांव नहीं टिकते।
255.दूसरों को अभाव में देखकर जो सहायता करता है वही सज्जन है वही प्रभु का सच्चा सेवक है।
256.अनुकूलता प्रतिकूलता में जो समभाव रखे वही ज्ञानी है।
257.यदि अपनी बुद्धि को सर्वोपरि मानोगे तो अहंकार तो होगा ही।
258.मन का क्या है वह तो असंयमी अश्व है उसे बुद्धि रूपी चाबुक से वश में रखो।
259.मनुष्य का शत्रू कौन है मित्र कौन इसका निर्णय मनुष्य को स्वयं ही करना चाहिए पर अंहकार उसका सबसे बड़ा शत्रू होता है।
260.भले मनुष्य वे होते हैं जो सर्व कल्याण की ओर उन्मुख रहते हैं।
261.जो प्राणी मन की प्रवृतियों पर संयम नहीं रखता वह उन प्रवृतियों द्वारा नष्ट कर दिया जाता है।
262.आत्म ज्ञानियों द्वारा उन प्रवृतियों को नष्ट कर दिया जाता है जो उनके लक्ष्य प्राप्ति में विघ्न स्वरूप हो जाती हैं।
263.यदि आनन्द की अनुभूति प्राप्त करना चाहते हो तो मन की दासता से मुक्ति प्राप्त करनी होगी।
264.सर्वथा नश्वर संसार की चिन्ता न करके निर्मल आत्मा होने के प्रयास में रहो।
265.आत्मा का लक्ष्य सुनिश्चित है उसका मार्ग भी एक ही है फिर व्यर्थ इधर उधर क्यों भटक रहे हो?
266.अरे इस मन के वश में होकर बड़े - बड़े शूरवीर ध्वस्त हो गये केवल वही सफल हुए जिन्होंने मन को वश कर लिया। इसलिए इस मन को वश में रखना चाहिए।
267.जिस प्रकार कांटो से घिरे गुलाब अपनी छटा ही बिखरातें हैं उसी प्रकार तुम्हें भी दुःख में उदास नहीं होना चाहिए।
268.कल पर छोड़ना कलेश है अतएव आज को महत्व दो।
269.सुन्दर तन का महत्व तो है परन्तु यदि मन को सुन्दर रखोगे - तो समाज में यश मान तो प्राप्त होगा ही प्रभु की दृष्टि में भी सन्मान प्राप्त कर लोगे।
270.तेरा मेरा क्या करता है सब कुछ तुम्हारा ही तो है - जल पवन रोशनी मिट्टी व आकाश को अपना लो सब कुछ इसी से निर्मित है।
271.तूँ समझता है आकाश की ऊँचाईयों पर केवल तुम्हारा ही अधिकार है - यह तुम्हारी भूल है।
272.मन का क्या - वह तो वायु के झोकों की तरह - दिखाई देता नहीं पर सारी सृष्टि को प्राणवान रखने में सहायक है।
273.तुम पूछ रहे हो क्या पाया? मैं समझता हूँ कि यदि तुम मिल गए तो सभी कुछ प्राप्त हो गया।
274.सुख शान्ति इस संसार में ढूंढ रहे हो - कभी क्या यहाँ किसी को सुखी देखा है?
275.अनजानी राहों पर चल कर जिस प्रकार पथिक मंजिल पा ही लेता है - उसी प्रकार तुम चलते रहो - मंजिल मिल ही जायेगी।
276.अरे भले मानुस तूँ कहता है कि मैं लुट गया पिट गया बरबाद हो गया - अरे मूर्ख जब तक तेरा शरीर है - तब तक श्रम करता रह प्राप्ति में देर नहीं लगेगी।
277.मेरे मित्र - एक बात समझ ले - यह संसार तेरा है तेरे लिए बनाया गया है - तब तूँ इसे बरबाद न कर।
278.अपने लक्ष्य पर बढ़ते रहना चाहिए आपत्तियाँ तो आती रहती हैं।
279.संसार में सब कुछ प्राप्त होता है - पर सुख नहीं मिलता।
280.लोगों का कल्याण करते हुए - ईसा की तरह सूली पर लटका जाना ही तुम्हारा प्रिय होना चाहिए।
281.प्रियजन का प्रिय तो सभी चाहते हैं - अप्रिय का प्रिय करने वाला तो साधू जन ही है।
282.अप्रिय का आघात तुम बरदाश्त नहीं कर पाते परन्तु प्रिय इससे भी अधिक आघात तुम्हें दे जाते हैं।
283.अरे कौन प्रिय कौन अप्रिय - संसार की सच्चाई तो यही है - कि कोई तुम्हारा नहीं है।
284.हे बंधू- सोच समझ, संसार ने किसको सुख दिया है?
285.मन की खोज जारी रखो और इससे सावधन भी रहो यह गुप्त विचारों से भी ओत प्रोत रहता है जो तुम्हारे सुन्दर भविष्य को नष्ट करने में देर नहीं करेगा।
286.आपका मन अति रहस्यमय है उसकी तंरगे ज्वारभाटा की तरह हैं जिनको संयम द्वारा ही बाँधा जा सकता है।
287.आपकी वासनाएँ आपको अन्धा बनाकर पतन के गहरे कूप में धकेल देतीं हैं जहाँ से निकल पाना सम्भव नहीं होता।
288.विषय सुख का जो चिन्तन करता है उसके लिए नरक द्वार हमेशा खुला रहता है।
289.विषयरस को जो अपनाते हैं उन्हें अमृतरस के स्वाद का ज्ञान नहीं होता।
290.रे मन धर्म पर चलना और उसकी मर्यादाओं का उल्लंघन न करना तूँ अपना वास्तविक ध्येय बना ले, इसी से तेरा कल्याण होगा।
291.रे मन संकोच व लज्जा त्याग प्रभु से प्रीति करने में ही तेरा हित व कल्याण निहित है।
292.रे मन दुविधा क्या - सब कुछ अच्छा या बुरा - इसका निर्णय विवेक से करके अपना मार्ग प्रशस्त करले।
293.रे मन मत इतरा इस संसार में तेरा अस्तित्व देह के साथ ही है उसके बिना तेरा ठिकाना कहाँ है?
294.रे मन अपना शत्रु तो स्वयं तूँ ही है जो कुसंग में पड़ कर अपना जीवन नष्ट कर रहा है।
295.रे मन धीर पुरूषों सा आचरण कर अधीरता से तो कुछ भी प्राप्त नहीं होता केवल व्याकुलता बढ़ेगी भाग्य से पहले कुछ भी प्राप्त नहीं होता यही विधता का नियम है।
296.रे मन सावधान रह संसारिक द्वन्दों में पड़ कर यदि मोहपाश में यों ही फंसता रहा तो लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा।
297.रे मन इतना मत भाग कि तेरा लक्ष्य पीछे ही छूट जावे।
298.रे मन भागकर जाएगा कहाँ सभी स्थानों पर वो अदृश्य दृष्टा विराजित है जिसकी तेरी हर क्रिया पर भाव पर दृष्टि रहती है।
299.रे मन श्री व वैभव के लिए क्यों आतुर है नारायण प्राप्ति तेरा लक्ष्य है श्री तो उसके चरणों की अनुरजिंनी है और वैभव भी उसके साथ ही हैं।
300.रे मन मनुज को सब कुछ कर्मानुसार ही तो प्राप्त होता है फिर तेरी लालसा इतनी उद्दीप्ता क्यों है?
301.रे मन सावधान होकर संसार मार्ग पर चल कहीं भटक न जाना।
302.रे मन तूँ अपने अस्तित्व प्रदर्शन के लिए अहम् मद में डूब रहा है इस से तेरा पतन ही तो होगा।
303.रे मन मूढ़ता त्याग और भक्ति वैराग्य को दृढ़ कर तभी तेरा कल्याण होगा।
304.रे मन जीव से जीवन है इसलिए तूँ उसी की शरण में रह इधर उधर भटकने से तुझे क्या प्राप्त होगा?
305.रे मन बुद्धि कुबुद्धि हो सकती है इसलिए जीवात्मा के साथ संबन्ध जोड़ कर विवेक चित होकर ही सभी बातों का निर्णय कर।
306.रे मन मौन भी एक सन्देश है एकान्तिक समंजस्ये स्थापित करने का।
307.रे मन कपट तो तुझ में है जो संसार की निस्सारता नहीं देखता।
308.रे मन तेरा लक्ष्य विषय सुख नहीं है तेरा लक्ष्य तो परमानन्द प्राप्ति है इसलिए ऐन्द्रिय सुख की ओर मत जा।
309.रे मन जगत प्रँपच मिथ्या है उसमें न उलझ।
310.रे मन समता का व्यावहार सदा वन्दनीय है।
311.रे मन जिसे कुछ चाहिए उस में प्रेम कहाँ रह सकता है?
312.रे मन यह संसारिक माया जाल तेरी समझ से परे की बात है।
313.रे मन अगर तूँ मेरा तेरा में ही रहा तो सब कुछ गवाँ देगा।
314.रे मन तुझे जो चाहिए प्रभू से मांग, संसार तुझे क्या दे सकता है।
315.रे मन तूँ अगर निर्मल भाव रहेगा, तूँ फिर दोष किसमें देखेगा?
316.रे मन प्रभू की सेवा कर।
317.रे मन चातुर्य में क्या धरा है उस के सामने कोई चतुराई काम न आएगी।
318.रे मन जब यम पाश में पड़ेगा तब रूदन करने से क्या होगा?
319.रे मन कोटि शेष महेश ब्रहमा जिसकी थाह न पा सके तूँ नित्य उसी का भजन कर।
320.रे मन जो सत्य है, उसे स्वीकार करले जीवात्मा से ही तेरा अस्तित्व है उसका तुझ से नहीं।
321.रे मन दुष्टता त्याग और संसार के मोह में न फंस।
322.रे मन सत्य को स्वीकार और चित में हरि का ध्यान किया कर।
323.रे मन संसार में तेरा एकाधिकार नहीं है अतः सोच समझ कर व्यावहार कर।
324.रे मन यहाँ तेरा कौन है चुपचाप यहाँ से दूर चले जा जहाँ तेरा सच्चा मित्रा निवास करता है।
325.रे मन दुःख तो इस संसार में मिलता ही है फिर उससे घबराहट कैसी?
326.रे मन जो तुझे प्राप्त होना है वह तो होगा ही अप्राप्त की चिन्ता किस लिए करता है?
327.रे मन उठ उसकी चिन्ता कर जो हर पल खो रहा है जो फिर प्राप्त न होगा संसारिक वस्तुएँ तो कर्मानुसार प्राप्त होती ही रहती हैं।
328.रे मन समय की आंधी में बड़े - बड़े शूरवीर ध्वस्त हो जाते है फिर तूँ भी कहाँ बचेगा?
329.रे मन संसार से क्यों मांग रहा है, सब कुछ परमेश्वर दे तो रहें हैं।
330.रे मन किस अधिकार की बात करता है केवल कर्तव्य कर्म पर ही तेरा अधिकार है।
331.रे मन प्रीत की रीत निराली है इसमें सुख चैन न आली है।
332.रे मन हरि भक्ति में ही आनन्द है।
333.रे मन सावधान होकर सुन जिस संसार को तूँ अपना मान रहा है वह क्षण भंगुर है।
334.रे मन साहस है तो इस संसार से बाहर छलांग लगा के देख - मिथ्या साहसी होने का दम्भ क्यों करता है?
335.रे मन इस संसार में जैसा कोई करता है उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है यही संसार का अटल सत्य है।
336.रे मन जिस बुद्धि रूपी घोड़े पर तूँ सवार है उसकी आँखों पर तो तूने माया रूपी पट्टी बाँध रखी है और तूँ समझता है कि तूँ लक्ष्य प्राप्त कर लेगा यह तेरी भूल है।
337.रे मन आँखें खोल कर देखने पर भी इस संसार में कई बार सत्य उद्भासित नहीं होता फिर तूँ आँखें बंद रख कर उसे कैसे खोज सकेगा?
338.रे मन किसी और से नहीं अपने आप से ही पूछ कर देख कि तेरा निश्चय दृढ़ है कि नहीं, कि व्यर्थ ही संकल्पों विकल्पों में डूबा हुआ है।
339.रे मन तूँ क्यों डोलता है एक बार जब लक्ष्य निश्चित कर लिया तो उसी पर स्थिर रह।
340.रे मन ज्ञात वस्तुओं में किस सुख की इच्छा कर रहा है - सुख तो उन्हें भुला देने में ही है।
341.रे मन जिसकी संसार में तूँ चाह करता है, वह भले ही तुझे मिल जावे - पर सन्तोष तो तुझे तब भी प्राप्त नहीं होगा।
342.रे मन उसी का बन जा जो युगों युगों से तेरी राह देख रहा है जो केवल तेरा ही हितचिन्तक है।
343.रे मन धर्म अधर्म के पाप पुण्य के पचडे़ में न पड़, सब कुछ ऐसा करता जा जिससे किसी प्राणी का अहित न हो न ही उसके मन में क्लेश उतपन्न हो।
344.रे मन कहाँ तक भागेगा विश्व में तुझे कहीं शान्ति प्राप्त नही होगी - इसलिए अपने आप में रमण कर - अपने आप में ही मस्त रह।
345.रे मन सावधन होकर इन्द्रियों से सजग रह, ये सब विषय लोलुप हैं इनके पीछे मत भाग।
346.रे मन अस्थायी सुख के पीछे क्यों पागल हो रहा है चिरानन्द हो जो भक्ति से प्राप्त होगा।
347.रे मन जो सो रहा है दीखता है उसे जागृत कर तभी दोनों एकाकार होकर लक्ष्य प्रप्ति कर सकोगे।
348.रे मन तेरी व्यथा जगत नहीं परमेश्वर ही सुन समझ सकते हैं।
349.रे मन तूँ किसी भी विवाद में न पड़कर हरि को अपना मान ले और उन्हीं का भजन कर।
350.रे मन हरि भजन कर।
351.रे मन जब तूँ सोत्साह है तो कठिन कार्य कुछ भी नहीं है।
352.रे मन तेरे जैसा मूर्ख भला और कौन हो सकता है जो बार बार जगाने पर भी तूँ जाग नहीं रहा है - समय सामने से भागा जा रहा है उठ उस का लाभ प्राप्त कर ले।
353.रे मन कब तक दूसरों पर आश्रित रहेगा, उठ जो अपना सहारा खुद बनते हैं वही धन्य होते हैं।
354.रे मन मन भर का न होकर सरल भाव में रह - तभी आनन्द की अनुभूति होगी।
355.रे मन जहाँ तक तेरी दृष्टि जाती है वहाँ तक भी तूँ पूर्ण सत्य को नहीं देख पाता फिर भी कैसे अपने आप को सत्य दृष्टा मान बैठा है।
356.सत्य का मार्ग ही सत्यनारायण मार्ग है।
357.बुद्धि के विकारों में न फंसकर शुद्धचित होकर हरि भजन कर।
358.रे मन मूढ़ बना संसार में विचरण कर रहा है आँखें खोल कर देख संसार तेरा कहाँ है।
359.रे मन सहज में ही सत्य सामने दिखाई नहीं पड़ता उसे तो खोजना पड़ता है।
360.रे मन जहाँ तक तेरी बुद्धि जाती है वहीे तक तेरा मैं पन है उससे परेे परमतत्व की खोज करना तेरे लिए असम्भव है अतएव उसी की शरण ग्रहण करले।
361.शून्य से प्रकट शुन्य में ही विलिन हो जाता है जो शरीर, उसका अभिमान कैसा?
362.रे मन क्स्तूरी मृग की तरह मत भाग - अपने भीतर ही परमसत्य का अन्वेषण कर।
363.रे मन समाधि चित हो और अपने अस्तित्व को देख।
364.थोड़े से अहम् से ही मनुष्य नाश को प्राप्त हो जाता है अतः इससे दूर ही रह।
365.रे मन श्रम करेगा तो श्रान्त तो होगा ही पर जब श्रम का फल प्राप्त होगा तो विश्रान्ति मिलेगी।
366.रे मन सब को एक ही मार्ग से जाना होता है तो रथों का अभिमान क्यों करता है उस मार्ग पर तो सब को बिना रथ के ही चलना होता है।
367.रे मन परिणाम कुछ भी हो श्रम करना तेरा अभिप्राय है।
368.रे मन विषम परिस्थितियाँ तेरे उत्साह और धैर्य की परीक्षक हैं।
369.रे मन किस पर विश्वास करता है इस धरा पर जीव अपने अपने द्वन्दों में व्यस्त है तेरी परवाह किसे होगी?
370.रे मन मूर्ख अब तुझे कौन समझावे जिस प्रकार भ्रमर कुमदिनी के माया जाल में फंस जाता है उसी प्रकार तूँ संसार चक्र में फंसा हुआ है।
371.रे मन सुख न हो जिसके जीवन में वो सुख कैसे पावे?
372.रे मन बुद्धि से भी बुद्धिमान तूँ अहँकार से ग्रस्त कहां जा रहा है? सोच समझ कर लक्ष्य स्थिर कर तूँ कहाँ से क्या पा रहा है?
373.रे मन तेरा चंचल स्वभाव न हो तो संसारिक माया तेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती।
374.रे मन तूँ भयभीत है तो केवल इसलिए की तुझमें विकारों का डेरा जम चुका है।
375.रे मन तूँ अपने को बड़ा समझता है तो इच्छाओं का दास क्यों कर हो जाता है।
376.रे मन जो तूँ चाहता है आवश्यक नहीं है कि वही हो जो तेरे भाग्य में है वही होगा।
377.रे मन चाहे तूँ कितना ही सिर पटक ले किन्तु इस संसार सागर का पार नहीं पा सकता।
378.रे मन तूँ चाहे जितना जोर लगा ले - आत्मा तो एक दिन बन्ध्न रहित हो जाएगी।
379.रे मन तूझे मैं समझा समझा कर थक गया पर तूँ अपनी ढफली ही बजाए जा रहा है। एक बात कान खोल कर सुन ले हरि भजे बिना तेरी गति नहीं।
380.रे मन धोखा तूँ खुद खा रहा है दोष सर्वात्मा पर लगा रहा है जो ठीक नहीं है।
381.रे मन वह मित्र भी शत्रु ही है जो ईर्ष्या करता है।
382.रे मन बचना है तो दुष्ट जनों की संगति से बचो।
383.रे मन बुद्धि को आत्मबल से ओत प्रोत कर - निर्बल होकर क्या करेगा।
384.रे मन नास्तिक वह नहीं जो भगवान को नहीं मानताअपितु नास्तिक वह है जिसे अपने आप पर विश्वास नहीं है।
385.रे मन यदि तुझमें प्रतिरोधात्मक शक्ति नहीं होगी तो सदैव इन्द्रियों का दास बना रहेगा।
386.रे मन तूँ जो चाहता है अगर वही सब होता रहेगा तो प्रलय आने में देर न लगेगी।
387.रे मन मूरख चेत जरा क्यों इन्द्रियों द्वारा ठगा जा रहा।
388.रे मन आँखें बंद रखेगा तो तूझे कोई लूटता है तो इसमें तेरा ही दोष है।
389.रे मन जो होना है वही होगा जो भाग्य में है वह अपने आप प्राप्त होता है - प्रयास करने से कुछ अध्कि प्रभू कृपा से ही प्राप्त हीे सकता है।
390.रे मन यह धरा गगन तेरे लिए ही प्रभू द्वारा सृजित हुआ है फिर तूँ उन्हें करूणा कर क्यों नहीं मानता?
391.रे मन पर सेवा युक्त हो जिससे अहँकारों का नाश होता है।
392.रे मन सब कुछ हरि चरणों पर छोड़ दे।
393.रे मन सब धोखा है जगत मृग मरीचिका ही तो है।
394.अधिक पाने की लालसा ही तृष्णा है जिससे अशान्ति प्राप्त होती है इसलिए इस कामना का परित्याग कर।
395.रे मन आशा निराशा में क्यों जूझ रहा है एक को समाप्त करदे दूसरी स्वतः ही समाप्त हो जाएगी।
396.सागर से भी गहरा तेरा चित योगियों द्वारा भी कठिनाई से पकड़ में आता है, केवल हरि भक्ति से ही उसे जीता जा सकता है।
397.शत्रु तो तेरे भीतर ही बैठे हैं उनको पहचान कर उनका नाश कर।
398.भजन और भोजन तृप्ति दायक करो।
399.मूर्खों सी बात न कर यहाँ सब कुछ प्राप्त नहीं हो सकता जो भाग्य में होगा वही मिलेगा।
400.रे मन भागेगा कब तक जब तक यह शरीर है - तेरा मैं पन है उसके बाद तूँ कहाँ तेरी मैं कहाँ?
401.जीवन से भागने में सुख नहीं है अपितु जीवन जीने में सुख है।
402.जैसा तूँ चाहे वैसा ही हो यह तेरा अहम् है।
403.आशा दीप जला कर उससे तेरे जीवन में प्रकाश रहेगा।
404.भयभीत तो मूर्ख होते हैं विद्वानों को भय कैसा?
405.रे मन कितना ही चातुर हो जा बिना हरि भक्ति संसार सागर से पार होना कठिन है।
406.रे मन कब तक भटकता रहेगा विषयों से किस की तृप्ति हुई है?
407.चाहे - अनचाहे पापों के प्रायश्चित हेतु भगवती गायत्राी की शरण ग्रहण कर।
408.दुःख से प्रीत बढ़ाले बँधु दुःख भी मीत बन जावे।
409.धन्य हैं वे जो धर्मरूप हैं।
410.राग केवल प्रभु ही कर सकते हैं तुम केवल अनुराग करो।
411.आन्नदरस आपकी आत्मा में ही समादित है।
412.प्रेमी प्रेम करता है - लोभी लोभ करता है -मोहित मोह में फंसा है - पर कोई नहीं जानता कि वह बरबाद हो रहा है - किसी भी विषय में फंसना जाल में बधना है।
413.तुम्हारे साथ ही युग का अन्त हो जायेगा इसलिए तुम युग प्रर्वतक बनो।
414.तुम्हारा क्या तुम तो क्षण में सुखी दुखी हो जाते हो, संसार को तो क्रीड़ा मात्रा समझो जिस में जीत हार तो लगी ही रहती हैं।
415.दूसरों को जय करने से पहले अपने पर विजय प्राप्त करें।
416.तुम क्या चाहते हो , तुम जो चाहते हो वह कुछ भी नहीं प्रभु तुम्हारी अवश्कताओं को बिना चाहे भी पुर्ण करते रहते हैं।
417.दूसरों के दोष देखने से पूर्व अपने में झाँक कर देख लेना उत्तम रहता है।
418.सत्य से ही इस धरा पर साक्षी हो कर कर्म गति का सञ्चालन होता है।
419.समय का आश्रय ग्रहण करना चाहिए ताकि वह नष्ट न हो।
420.दुःख का मूल कारण सुख की चिन्ता ही है।
421.आकाश की सर्वव्यापकता तो सर्वविदित है, पर जो आकाश को भी आच्छादित किए हुए है वह सर्वात्मा है जो परे भी है और सामने भी।
422.तुम्हरी सभी समस्याओ का समाधान तुम्हारे अपने पास ही है तुम केवल अपने भीतर के आश्रय का सहारा ले कर तो देखो।
423.उसके नाम को हदय में धारण करो और जगती के काम भी करते रहो तब तुम्हारा जीवन सफल होगा।
424.सगर्भा जिस प्रकार अपनी ही कुक्षि को नहीं जान पाती उसी प्रकार जीवात्मा अपने किए कर्मो के फलों को नहीं जान पाती।
425.आज वर्तमान है कल भविष्य आज को अच्छी तरह जानलो कल को कोेन जान पाया है।
426.तुम जो हो वही दिखने का प्रयास करो तो मन में कोई दुविधा नहीं रहेगी।
427.तुम संसार नहीं हो न तुमसे यह संसार है केवल दृष्टा बन कर रहोगे तो संसार से लीप्ति नहीं होगी।
428.तुम स्वयं में दोष ढूँढने की अपेक्षा दूसरों मे उन्हे ढूँढते हो तो तुम्हारा चित्त शुद्ध कैसे हो सकता है।
429.उसका संबल जिसके पास है उसे चिन्ता किस बात की।
430.जीव आत्मा कर्म करने में स्वतन्त्र हैं।
431.जब जी चाहा जैसा भी आचारण कर लिया यह सब व्यर्थ हैैैै इस से तो संसार नहीं चलता जिसका एक नियम है।
432.जड़ या उज्जड़ न बनो प्रकृृृति का साथ दो उसे उज्जाड़ने का प्रयास न करो।
433.चहे कोई दिग्विजयी हो जाये पर वह काल जयी नहीं हो सकता।
434.तुम्हारा होना ही एक बड़ा करिश्मा है अन्य किस चमत्कार को तुम देखना चाहते हो।
435.कुछ थोड़ा पा लिया कुछ थोड़ा बना लिया और तुम अभिमानी हो गए जरा ऊपर आकाश की ओर देखो क्या तुम उस पर छा सकोगे।
436.बुद्ध वह जिसने बुद्धि को आत्मा में सन्निहित कर लिया वह ज्ञानी हो गया।
437.चहे जितना जोड़ लो कितना इकट्ठा कर लो साथ कुछ जाने वाला नहीं मुट्ठी बाँध कर आए थे हाथ पसारे जाओगे।
438.इन्द्रियां विषय रूपी विष पान के लिय ललायित रहतीं है, मन को उनका पीछा मत करने दो।
439.धैर्य आत्मा का बल भी है और भुषण भी।
440.आज को देखो कल किसने देखा है।
441.निज अनुभव से सत्य ज्ञान प्राप्त हो सकता है।
442.जो निर्विकार हो गया वह परमेश्वर हो गया।
443.अजेय कौन? जो इन्द्रियां जयी हो गया।
444.न जाने प्राण कब प्रयाण कर जावे तब किस देह का अभिमान करते हो।
445.संसार में अगर तुम्हे कुछ अच्छा नहीं लगता तो यह आवश्यक नहीं वह बुरा ही हो।
446.सब कुछ सामने घटित हो रहा हो तब भी क्या आप सब कुछ देख पाते हो।
447.योगी जन कुम्भ का स्नान अपने पिण्ड में ही कर लेते है पर अन्य जनों को तो तीर्थ पर जाना होता है।
448.अवरुद्ध मार्ग भी विघ्न कारक नहीं रहते यदि प्रभु की दृष्टि जीव पर रहे।
449.संसार में ऐसा बहुत कुछ है सभी सभी कुछ नहीं जान सकते फिर ज्ञानी होने का दम्म क्यों भरते हो।
450.उसका आश्रय लोगे तो मंज़िलें आसान हो जाएँगी।
451.विचार शून्यता ही समाधि है।
452.धर्म का मूल है सत्य प्रेम।
453.उस विराट को तुम क्या जान सकोगे यदि समर्पण नहीं।
454.जिसे कभी चोट न लगी हो वह दूसरों की चोट का दुःख नहीं जान पाता।
455.विचार शून्य ही शान्ति प्राप्त कर सकता है।
456.विवेक हीन पशु के तुल्य ही है।
457.मन का एक अलग संसार है जरा विचार कर तो देखो।
458.शान्त सागर भी वायु के प्रभाव से उच्छवासित हो जाता है उसी प्रकार शान्त हृदय भी भावों से तरंगित होता रहता है।
459.सत्य ही संसार का मूल है।
460.धीरज रखने से दुख दूर रहता है।
461.मन की गहराई में उतर जाने पर सभी इच्छाएँ निर्मूल हो जाती हैं।
462.अंहकार का नाश करो।
463.वही एक जानने योग्य है।
464.शुद्ध विचार की शक्ति वचन से अधिक है।
465.असुर अजेय हैं पर उनके स्वार्थ ही उनकी पराजय का कारण होते हैं।
466.अभिमान का त्याग सर्वोपरी।
467.उसी एक का आश्रय लो।
468.आशा की एक किरण भी आशा जागृृत रखती है।
469.कर्तव्य कर्म पर आरूढ़ रहना मानव का धर्म है।
470.कर्म का भोग तो भोगना ही है।
471.निश्चयात्मिका बुद्धि से उसको जानने का प्रयास कर लो।
472.अंहकार से प्रतिस्पर्धा न करो।
473.त्याग से लोभ पर काबू पाया जा सकता है।
474.उस आश्रय दाता का नित्य धन्यवाद करते रहो।
475.अपने में दोष रखना पाप है परन्तु उन्हें छिपा कर रखना महापाप है।
476.कोई भी गुण बिना प्रयास के ग्रहण नहीं किया जा सकता।
477.भाव भजन से ही सिद्धि प्राप्त होती है।
478.कभी कभी छोटी बाते भी तिल का ताड़ बन जाती है इसलिए बोल ने से पहले सोच ले ।
479.सुख रूपी चिड़िया हाथ में पकड़ी नहीं जा सकती कुछ काल के लिए दृष्टि गोचर भले ही हो।
480.क्रोध बुद्धि का हरण कर लेता है।
481.जो अपमान रूपी विषपान कर गया वह शिव के समान हो गया।
482.आत्मा की चिरन्तन प्यास प्रभु स्मरण से ही बुझेगी।
483.उतार चढ़ाव तो आते रहते हैं पर जीवन की धारा कहीं रूकती नहीं है।
484.जो चिन्तनीय नहीं उसकी चिन्ता न करे।
485.मित्र केवल नारायण ही हैं।
486.मित्र वह जो तम में प्रकाश भरें।
487.अन्जान न बनो वह सब जानता है।
488.अभिमान तो हर प्रकार से गिराता है।
489.मित्रता तो दस कदम साथ चलने पर हो जाती है।
490.उसी पर निर्भर रहो।
491.सद् विचार तुम्हारे आचरण में आने चाहिए।
492.जगती कीचड़ में पंकज की तरह खिलो।
493.दूसरों के सुख से ईष्र्या न कर के दूसरों के दुखः दूर करने की चेष्टा करो।
494.यदि तन्मयता रहती है तो कोई काम कठिन नहीं होता।
495.जो मन में मैल रखता है वह गंगा जल से भी कहाँ शुद्ध होता है।
496.अगर निश्चिन्त होना है तो प्रभु की इच्छा को सर्वोपरी मान लो।
497.मोक्ष की सुलभता प्रेमा भक्ति पर निर्भर है।
498.तुम्हारी इच्छायें पल पल बदलती रहती है प्रभु किस किस इच्छा को पूर्ण करते रहें।
499.शरीर को नहीं आत्मा को सँवारने का प्रयास करना चाहिए शरीर नाशवान है आत्मा कभी मरती नहीं यह जानते हुऐ भी तुम अनजान क्यो बने हुए हो।
500.तुम्हारी इच्छा है कि तुम प्रकाश या अन्धकार किसको महत्व देते हो - महत्व तो दोनो का अपना अपना है।
501.यदि अहंकार को नष्ट करना चाहते हो तो अतीत में जाकर उसे मनचित्त से निर्वीज करना होगा।
502.अतीत स्मृति भंग हो जाने पर ही वर्तमान सुखदाई होता है।
503.निराश क्यों होते हों कर्मफल तो सभी को भोगना होता है - भोग कर ही उससे छुटकारा प्राप्त होगा।
504.चित्त दर्पण की तरह है उसे मैला न होने दो।
505.कौन सत्य है कैसा सत्य है चिन्तन करने से भास होता है।
506.जैसा विचार करेगें फल वैसा ही प्राप्त होगा।
507.संसार को भवसागर नहीं भावसागर समझो जो निर्भाव होगा वही इससे पार होगा।
508.प्रकाश में कोलाहल है अन्ध्कार में मौन दोनो एक दूसरे के विपरीत है पर दोनो के बिना शून्य है - इसलिए ज्ञानी जन उस में ही सुख ढूढ़ लेते हैं।
509.तुम जो जानते हो वही पूर्ण सत्य है यह तुमने कैसे मान लिया क्योंकि पूर्णसत्य तो वही जान सकता है जो स्वंय पूर्ण हो इस लिय सत्य की खोज जारी रखो।
510.जीव जन्तुओं की तरह जो मिला सो खा लिया यह मनुष्यता नहीं है संयमित आहार ही लेना मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता है।
511.मनुष्य गुण दोष की पहचान उसके व्यवहार से होती है।
512.अपने सभी गुण दोष प्रभू के चरणों में समर्पित करके निर्मल भाव हो जाओ।
513.अकसर दुखों में आई आतुरता भी ज्ञान प्रदायिनी हो जाती हैं।
514.अपने आप से अनजान दूसरों की पहचान क्या करेगा।
515.किसी वस्तु या व्यक्ति से आप विमुख हो गए इसका मतलब यह नहीं कि आपने उसका त्याग कर दिया।
516.संसार में विपरीत परिस्थितियों में रहकर ही ज्ञान की प्राप्ति होती है।
517.ज्ञान की चादर ओढ़ ली और अपने आपको ज्ञानी समझ लिया यही तो अज्ञान है।
518.यदि तुम प्रकृृृति की किसी भी वस्तु को घृृणा की दृष्टि से देखते हो तो इससे प्रभु का अपमान ही होता है।
519.संसार मार्ग पर सदैव सावधन होकर चलना ही बेहतर है।
520.शरीर मन के द्वारा, मन चित्त के द्वारा, चित्त आत्मा के द्वारा, आत्मा परमात्मा के ध्यान के द्वारा ही संयमित हो सकते है।
521.अपने आप को तो जाना नहीं समझा नहीं दुसरों को क्या जान पाओगे।
522.यदि संसार एक सागर है तो राम नाम जल जोत है जिसमें सवार होकर उसे पार करना कठिन नहीं है।
523.दुःख तभी तक है जब तक धीरता नहीं है।
524.तुम चाहते तो बहुत कुछ हो पर बिना प्रयास और भाग्य के कुछ भी प्राप्त होने वाला नहीं हैं।
525.तुम्हारा जो निश्चय है वह कभी न कभी अवश्य पूर्ण हो जाएगा दृढ संकल्प भाग्य मे परिवर्तित हो जाता है यह विधि का विधान है।
526.तुम जो हो तुम्हारे सिवा कौन अच्छी प्रकार जान सकता है।
527.तुम इन्सान हो यह भ्रम निकाल दो जब तुममें पशु वृत्ति शेष है।
528.रूको कहाँँ तक भागोगे यह संसार पकड़ में आने वाला नहीं है तनिक रूक कर राम नाम की छाया तले विश्राम कर लो।
529.संसार को तो तुमने देख ही लिया होगा पर क्या अभी तक उसकी नश्वरता को तुम देख पाये अथवा नहीं।
530.संसार तुमसे नहीं तुम संसार से चलते हो तुम नहीं रहोगे पर संसार फिर भी चलता रहेगा।
531.चाहे तुम संसार को कितना ही प्यार करो परन्तु वह तब तक ही तुम्हारे साथ है जब तक उसका कोई स्वार्थ है।
532.संसार का कुछ न कुछ तो आधर है जो वह टिका हुआ है।
533.जो जन पर उपकार करता है वही जनार्दन बनता है।
534.न देह न गेह कुछ भी तो स्थिर नहीं फिर और भी क्या पाना चाहते हो।
535.सभी रंग उसी बहुरंगी के हे फिर किसी रंग से भेद भाव क्यों करते हो।
536.विकारों का त्याग तभी सम्भव है जब चित् और दृष्टि निर्मल रहे।
537.जिस प्रकार आसमान की विशालता का कोई थाह नहीं उसी प्रकार आत्मा की विशालता के बिषय में भी जाना नहीं जा सकता।
538.मन के कपाट खुले रखने से भीतर की शुद्धता बनी रहती है।
539.वही आश्रित हैं जिनका आश्रय प्रभु हैं।
540.ह्रदय में निर्मल भाव रहे तो संसार भी सुन्दर दिखाई देता है।
541.कर्म में हुई थोड़ी सी चूक भी कहाँ पहुँचा देती हैं यह कोई नहीं जानता।
542.सब कुछ यहीं छुट जाना है फिर इकठा क्यों कर रहे हो।
543.घीरज से ही शान्ति प्राप्त होती है।
544.सत्य ही असत्य पर विजय प्राप्त करता है।
545.सागर चाहे कितना भी गहरा हो उससे डूब कर बचने की फिर सम्भावना है पर नारी के नेत्रों में डूब कर कोई भी बच नहीं सकता।
546.थोड़े से संकटो के बादल गहराते हैं तुम दुःखी हो जाते हो पर सुख रूपी वर्षा तो उसके बाद ही होती हैं।
547.तुम जिस प्रकार योग्य चिकित्सक के पास जाकर अपने शरीर का निरीक्षण परीक्षण करवाते रहते हो उसी प्रकार योग्य गुरू के पास जाकर अपनी आत्मा की जाँच करवाते रहना चाहिए।
548.सत्य की डगर कठिन है पर सुखदाई है।
549.सब कुछ त्याग करने का अभिमान भी अहँकार ही होता है।
550.आशा ही दुःख की जननी है।
551.निराशा में आशा का दीप जला कर रखो।
552.जीवन की नियति संघर्ष है इसलिए घबराओ नहीं।
553.तुम्हारे लिए कर्मक्षेत्र ही युध्क्षेत्र है।
554.भूत की चिन्ता क्यो करते हो वर्तमान की चिन्ता करो भविष्य अपने आप उज्जवल हो जाएगा।
555.सभी ने माना हे कि संसार दुःख रूप ही है।
556.आज यदि विश्राम करोगे तो कल क्या करोगे।
557.दूसरा कोई नहीं तुम स्वंय ही अपने कर्मो को भोगना है।
558.सब जगत तुम्हारे लिए ही तो बनाया गया है फिर तुम किस बात की चिन्ता करते हो।
559.कौन किसके साथ कब तक चलेगा आखिर तो अकेले ही चलना है।
560.सभी के लिए कोई न कोई मर्यादा निश्चित होती है उसे लाॅघना अपना नाश करना है।
561.इस संसार में सुखी कौन है जो तुम दुखी हो रहे हो।
562.तुम्हारा क्रोध् तुम्हारे शत्रुताओ को भले ही नष्ट करादे किन्तु तुम विनय सम्पन्न होकर पुर्ण संसार को वश में कर सकते हो।
563.धर्म क्या अधर्म क्या इसकी कोई निश्चित परिभाषा नहीं है - जो आचरण मर्यादा के अनुकूल न हो वही अधर्म है।
564.ज्ञान की कोई सीमा निश्चित नहीं इसलिए ज्ञानवान होने के अहँँकार का त्याग करो।
565.तुम्हारा सोचा क्या कभी उसकी कृपा बिना पुरा हो सकता है।
566.क्या कभी प्यासो की प्यास बुझाने कुआ पास आता है - पर उसकी बात ही अलग है उसे तुम पुकारो तो सही वह तुम्हारे पास स्वयँ आकर तुम्हारी प्यास बुझाऐगा।
567.दुःख रूपी काँटो की चिन्ता क्यों करते हो फूल तो काँटो के बीच ही खिलते हैं।
568.दृढ़ कर्म के नियम से किसी का भी बच पाना सम्भव नहीं है।
569.नित्य भोर और सांय होती है। इसी प्रकार जीवन बदलता रहता है।
570.कौन जानता है कब क्या होगा।
571.दुःख सुख का स्रोत पूर्व कृत कर्म ही हैं।
572.कोई भी इच्छा तुम्हें संसार सागर में फंसा रखने के लिय काफी है।
573.धर्म का मर्म है मानवीय दायित्वों का निर्वहन न की नफरतों का व्यवहार।
574.सर्व जन वशीकरण मन्त्र बस एक ही है वह है तुम्हारा मृदुल व्यवहार।
575.जीव का जीवन से सामव्य बना कर रखना ही देह का धरण है।
576.सुख की आशा मात्र ही दुख का कारण है।
577.अपने ह्रदय को इतना विशाल कर दो कि सारा जगत उसमें समा जाये।
578.विचारक होने से नहीं अपितु विचार शून्य होने से चिन्तामुक्त होता है।
579.इस गतिमान संसार में गतिहीन ही जड़ कहलाता और जो जड़ होकर स्थिर हो जाता है वह जब शून्य में ध्यान करता है तो इस अस्थिर प्रकृति से मुक्त होकर आनन्द को प्राप्त करता है।
580.धरा के सभी सुख सभी को प्राप्त हो जावे यह सम्भव ही नहीं है तो फिर तुम अभाव की चिन्ता क्यों करते हो।
581.धन वैभव किस काम का यदि उससे शान्ति प्राप्त नहीं।
582.प्रकृति की गति को कोई क्या जानेगा समझेगा अनुकूल गुण भी परिवर्तन शील होते जाते हैं विपरीत तो विक्षेप करते रहते हैं।
583.तुम चाहे अकाश छूलो किन्तु रहना तो धरा पर ही है।
584.त्रिगुणमयी प्रकृति में नित्य होते परिवर्तन को कौन जान पाया है।
585.एक भगवान का आश्रय हो तो औरों से क्या प्रयोजन?
586.भागो नहीं जरा रूक कर देख तो लो कि कहाँ तक पहुँच गए हो।
587.जो भी किसी के पास है वह उसके भाग्य के अनुसार है फिर द्वेष क्यों करते हो?
588.जो कुछ तुम्हारा है तुम्हारे पास है क्या तुम समझते हो क्या वह तुम्हारे ही काम आएगा।
589.उसको जानना तो कठिन है पर उसकी कृपा तो पग पग पर जान लो।
590.यदि तुम में अहँकार बैठा हुआ है तो तुम सबको शत्रु बना लोगे।
591.जो प्राणी अपने आप को जान गया वह प्रभु के निकट आ गया।
592.जो तुम्हारे भाग्य में नहीं वह तुम्हें कैसे प्राप्त होगा।
593.अपने मन को तुम नहीं जानते उसके मन की तुम क्या जान पाओगे।
594.गुणवान नहीं गुणहीन होने से वो प्राप्त होता है।
595.इस आशा में कल पर छोड़ते हो कि कुछ होगा इसी प्रकार कल कल करते कल होती जाती है पर कुछ होता नहीं।
596.तुम संसार की ओर नहीं प्रभू की ओर निहारो।
597.कोई भी व्यक्ति एक क्षण को भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता तो फिर तो तुम कर्म के नियम से कैसे मुक्त रह सकोगे?
598.सत्यधर्म ही केवल तुम्हारे साथ जाएगा।
599.वर्षा चाहे जितनी भी हो - सूखे ठूंठ को हरा नहीं कर सकती, इसी प्रकार जिनका ह्रदय सूख गया हो, वह प्रभु की कृपा वर्षा से कभी भी पुलकित नहीं होता।
600.हमारा अहम् ही हमारे दुःख का कारण है।
601.तुम संसार को क्या वश में करोगे तुम्हारे तो अपने प्राण भी तुम्हारे वश में नहीं हैं।
602.श्रद्धा विश्वास को अडिग करती है।
603.धर्म के लिए मरना ठीक पर धर्मान्धता के लिए न जीना ठीक न मरना।
604.श्रदेय के विरुद्ध रहने पर भी जो अविचलित रहे उसका नाम है - श्रद्धा।
605.भिन्न भिन्न शरीरों में चेतन आत्मा तो एक ही है।
606.तुम्हारे विचारों की सीमा जहाँ से प्रारम्भ होती है उससे पूर्व की स्थिति तुम कैसे जान पाओगे।
607.भगवान आकाश में रहते हैं वह आकाश तुम्हारे भीतर भी तो है।
608.सत्य की खोज नहीं करनी पड़ती वह तो स्वयं सिद्ध है।
609.आत्मिक शान्ति चाहिए तो सेवा करें।
610.बुद्धि शुद्ध हो तो सुख व शान्ति प्राप्त होती है।
611.जितना तुम्हारे भाग्य में है उतना प्राप्त हो जाएगा फिर चिन्ता कैसी?
612.सफलतम् जीवन की कुन्जी विन्रम बने रहना।
613.निराशा हीन प्राणी ही सुख प्राप्त कर सकता है।
614.मनुष्य की इच्छापूर्ति तो भगवान करते हैं ।
615.जब तक मन में राम है तब तक देह में प्राण है।
616.सेवा में निजता को समाप्त करना पड़ता है।
617.शुभ विचार रखो ही नहीं उस पर अमल भी करो।
618.कर्मफल की चिन्ता न करो कर्मण्य बनो।
619.इस संसार मे प्रभु ने सब कुछ तुम्हारे लिए ही तो बनाया है।
620.ज्ञानी वही है जो अवसर के अनुसार अपनी बात करे।
621.शुभ विचार तुम्हारे शुभ संस्कारों से उत्पन्न होते हैं।
622.जब तक स्वार्थ रखोगे तो चिन्ता तो बनी ही रहेगी।
623.महान वह है जो क्षमाशील है और शान्त है।
624.सब कुछ तुम्हारे पास है पर यदि भगवान साथ नहीं है तो सब कुछ व्यर्थ है।
625.योग्य शिष्य बनने में भलाई है - गुरू बनने में नहीं।
626.यदि विचार ठीक रखने है तो बुद्धि को ईश्वर भाव में लगा कर रखो।
627.एक मात्र सत्य भक्ति के द्वारा ही प्राप्त होता है।
628.जिसे शान्ति नहीं आराम नहीं उसे ज्ञान भी नहीं।
629.जीवन फूलो की सेज नहीं काँटों की सेज है।
630.शान्ति और निश्चय ही ज्ञान के हेतु है।
631.जब सब कुछ उसी का है तो उसे भेंट करने में तुम्हारा क्या जाता है।
632.शरीर को स्वस्थ, मन को दृढ़, आत्मा को आस्तिक भाव में रखो।
633.जिसका तुम उपयोग कर रहे हो वही कुछ तुम्हारा है जो संभाल कर रख रहे हो वह न जाने किस के काम आएगा।
634.प्रभू का चिन्तन करने से हृदय मे आए विचार स्वंय ही शुद्ध हो जाते है।
635.तुम उसकी और थोड़ा सा बढो वह स्वयं ही तुम्हें अपना लेगा।
636.जगत कर्म क्षेत्र है इसमें आलस बेकार है।
637.दुःख हँसने से कम होता है और रोने से बढ़ जाता है।
638.उद्देश्यहीन व्यक्ति बिना मल्लाह की नाव के समान होता है।
639.अधिक ऊँचा बोलने से किसी भी आवाज़ को नहीं दवाया जा सकता चुप रहना ही इसका एक मात्र समाधन है।
640.सुख दुःख का कोई अस्तिव नहीं वे तो मानसिक अनुभुतियाँँ है।
641.आदमी जितना भोग भोगता है उतना ही दुःखी होता चला जाता है।
642.जीवन पवन के झोके की तरह होता है।
643.पहले अच्छी तरह विचार कर ही कार्य आरम्भ करें।
644.श्रद्धा में निराशा का कोई स्थान नहीं।
645.आनन्द तो भीतर है उसे बाहर क्या खोज रहे हो।
646.क्यों भाग रहे हो - कब तक भागते रहोगे? सोचो विचारो अपने लक्ष्य से चूक न जाओ इसलिए ठहर कर विश्राम करलो और कुछ चिन्तन भी करलो।
647.नेक काम अभी कर बुरा काम कल पर मुल्तवी कर दे।
648.सतसंग करने से आत्मा को उच्चता प्राप्त होती है।
649.जहाँँ पहुँँच कर सारे मार्ग एक हो जाते हैं वही तुम्हारा लक्ष्य है।
650.संशय रहित ही निष्ठावान होता है।
651.आत्मा को पाप पंक से दूर रखने के लिए आत्मचितंन करते रहो।
652.आज वही काम करो जो सबके लिए उपयोगी हो।
653.वही समय शुभ है जो भजन में व्यतीत हो।
654.क्रोधी को मारने की आवश्यकता नहीें वह तो स्वयं नष्ट हो जाता है।
655.समय की तरह संसार भी नाशवान है।
656.आशा के विपरीत होना ही दुःख का कारण है।
657.जो त्याग मन से नहीं होता वह स्थिर नहीं होता।
658.अपने आप को मारने से आत्मा जागृत होती हैं।
659.जीवन मे चरित्र को आदर्श बनाकर रखो।
660.जीवन असत्य है मृत्यु ध्रुव सत्य।
661.आपने निज को दूसरों पर आरोपित करना भी अहंकार ही है।
662.ईश्वर की सर्वोतम सत्ता के आगे कौन टिक सकता है।
663.जिस प्रकार जल आग्नि को नष्ट कर देता है उसी प्रकार भक्ति माया को नष्ट कर देती है।
664.तुम रहो न रहो दुनिया का प्रवाह चलता रहेगा।
665.जो दुःख तुम्हे सब से बड़ा शत्रू दिखाई देता है उसके दूर हो जाने पर तुम्हारी धीरता और निर्भयता भी नष्ट हो जाती है।
666.कर्तव्यों का निर्वहण करना सेवा ही है।
667.हृदय में निर्भरता रखो ईश्वर तुम्हारे साथ हैं।
668.अपने हृदय द्वार को सभी के लिए खुला रखो।
669.मन की भिन्न भिन्न अवस्थायें ही समय पर तुम्हारी शत्रु व मित्र हो जाती हैं |
670.जो तुम देख रहे हो संसार इतना ही नहीं है।
671.कोई भी अवसर एक बार चूक जावे पुनः प्राप्त नहीं होता।
672.सभी उपकर्म छोड़ कर प्रभू की शरण ग्रहण करो।
673.संसार की चिन्ताओं का बोझ क्यों ढो रहे हो प्रभू का चिंतन करते रहो।
674.उस पर निर्भर हो कर संसार की चिंता किस लिए।
675.वही सच्ची आस्था है जो प्रभू की ओर ले जाती है।
676.मिलता है यहाँ जो वो झूठ है फरेब है सच्चा सुख तो श्री चरणों में ही है।
677.दृढ़ चीत्त होकर सत्य संकल्प हो जाओ।
678.जिसने अपनी इन्द्रिओं को जीत लिया समझो उसने सब शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली।
679.अपराधी को अपराध बोध का होना उसे अपराध छोड़ने में सहयोगी हो जाता है।
680.सरल हृदय में प्रभु वास करते हैं।
681.अगर आज तुम्हारा है तो कल भी तुम्हारा होगा।
682.केवल बात यदि जीवन की होती तो सभी प्राणी आपना जीवन जी ही रहे हैं। पर बात तो यह है की कौन प्राणी किस प्रकार का जीवन जीता है।
683.इस संसार में सत्य की खोज करना कठिन कार्य है।
684.शिव ही जगत का कारण है वही शिव स्वरूप हैं वही जगत नियन्ता।
685.जो सत्य पर अडिग रहता है वही उसका साक्षात्कार करता है।
686.संसार तुम्हें वही देगा जो तुम उसे दोगे।
687.बस इतनी सी बात यदि तुम आपनी प्रकृतियों पर शासन नहीं कर सकते तो अन्य जीवों को क्या मार्ग दिखाओगे।
688.जो कुछ हो रहा है उसमें ही तुम्हारा हित है।
689.श्री हरि ही प्राण रूप में हमारे हृदय में स्पन्दन करते हैं।
690.तुम इस संसार को मुर्ख बना सकते हो पर उसे कैसे बनाओगे जिसने तुम्हें बनाया है।
691.हरि ही सत्य है - वही सत्य के रक्षक तथा वही साक्षात सत्य हैं।
692.निर्भय निरहंकार ही भक्ति की ओर बढ़ सकता है।
693.रंग बिरंगे रंगो से नहीं एक उसी के रंग में रंग जाओ।
694.मन में किसी प्रकार के आग्रह न पालो।
695.तुम संसार को क्या जानोगे जब आपने आप को नहीं जान पाए।
696.कोई किसी से कुछ लेता नहीं कोई किसी को कुछ देता नहीं यह संसार तोह ऋण बंधु है।
697.यदि तुम में अहंकार बैठा हुआ है तो तुम सबको शत्रु बना लोगे |
698.उसको जानना कठिन है पर उसकी कृपा को तो पग पग पर जान लो।
699.नश्वर देह के लिए नहीं अक्षर आत्मा के लिए जियो।
700.स्वच्छंदता प्रिय होने से अहंकार की प्राप्ति होती है।
701.तुम्हारा तुम होना जब तक जीवित रहेगा तब तक तुम्हें कुछ भी प्राप्त न होगा।
702.तुम्हारी विचारधारा यदि गंगाजल की तरह निर्मल रहेगी तो कोई कारण ही नहीं कि मल दोष तुम्हारे हृदय में टिक पायेगा।
703.यदि तुम्हें पुनर्जन्म की अभिलाषा नहीं है तो आपनी वृतियों और संकल्पों का नाश कर दो।
704.जीवों में शत्रु मित्र की खोज करते हो तुम्हारे कुभाव व सदभाव ही तुम्हारे शत्रु व मित्र होते हैं।
705.मित्रों का क्या वह तो तुम्हारी प्रशंसा ही करेंगें बलिहारी तो शत्रुओं पर जाओ जो तुम्हारी कमियां दिखाते हैं।
706.भोग - रोग और शोक देता है योग स्वस्थ शरीर और उल्लास प्रदान करता है।
707.धीरज से धर्म की रक्षा करें।
708.जब स्वयं की बुद्धि भ्रष्ट हो जावे तो गुरुजनों व श्रेष्ठ जनों से ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए।
709.भावसिद्धि तुम्हारे तप पर आधारित है।
710.न शुभ न अशुभ कर्मो कि गहन गति को केवल परमेश्वर ही जानते हैं अब सब सभी कर्मो को उन्हें समर्पित करते रहो।
711.जो तुम्हारा विरोध करता है वही तुम्हारा परम हितैषी है जो तुम्हारे दोषों को उजागर करता है।
712.विवेक पूर्वक अपने धर्म की रक्षा करते हुए अपने कर्तव्य कर्म करते रहो।
713.वो अनन्त संसार का साक्षी है उसका साक्षी कौन है विद्वानों के लिए यह रहस्य है।
714.विनम्रता सर्व शक्ति सुख का आधार है।
715.क्षमा को जीवन में आभूषण की तरह धारण करो।
716.जो उसके लिए जीता है उसी का जीवन धन्य है।
717.तन की नहीं मन की सुंदरता की परख करो।
718.मन ही बन्धन का कारण है मन ही स्वतन्त्रता का अतएव उसे सोच समझ कर बाहर निकलने दो।
719.आज का कोई विचार नहीं आज का कोई आचार नहीं - सब स्व्छन्द विचरण कर रहे हैं फिर हरि ही रक्षक हैं।
720.साहस के साथ आपनी व्रतियों को प्रभु की ओर उन्मुख रखो।
721.मनोरथ पूर्ण इस संसार में कोई नहीं है इसलिए सभी मनोरथ उस एक के ही चरणों में डाल देना चाहिए जो ही केवल पूर्णकाय है।
722.तुम्हारा ज्ञान निर्मल है पर तुम्हारी बुद्धि द्व्न्द में फँसी हुई है इस मर्म को समझ कर उसे भी ईश्वरार्पण कर दो।
723.एक से अनेक होना उसका स्वभाव है।
724.अभिमान रहित प्राणी ही संतोष भाव को प्राप्त होता है।
725.दुष्टजन कि पहचान बहुत सरल होती है जो तुम्हारी प्रसन्ता से द्वेष करे वह दुष्टजन ही होता है।
726.मुभुक्षु जन जिनका सदा ध्यान करते हैं वे श्री कृष्ण हम सब का कल्याण करें।
727.गुरु ज्ञान की प्राप्ती जिससे हो वही गुरु है।
728.धनहीन प्राणी का निर्वहण प्रभु कर देते हैं किन्तु असन्तोषी प्राणी की कहीं ठौर नहीं।
729.सभी तरह की मादकता सब कुछ नष्ट करने में सक्षम है इसलिए वह त्योज्य है।
730.ईश्वर के गुणो को-सुनना, देखना-मौन रहना आदि को अपनाने का प्रयास करो।
731.सभी विद्वानों को सुनते रहो पर यह जरूरी नही कि सबने सत्य को पूर्णतया जान ही लिया हो।
732.तुम अपने सुख में दूसरों को अवश्य ही भागीदार बनाओ।
733.ईश्वर प्रेममय हैं, वे किसी को कोई पीड़ा नहीं पहुंचाते।
734.ईश्वर में सदा विश्वास बना कर रखो।
735.जीवन में कुछ भी स्थाई नहीं है, न दुख, न ही सुख ।
736.प्राणियों में उनके गुण स्वभाव का प्रतिपल परिवर्तन संभव है अतएव सर्वदा सभी से सावधानी से ही व्यवहार करें ।
737.प्रतिपल उसका आंकलन करते रहो कि तुम्हारा व्यवहार दूसरों के प्रति गलत तो नहीं ।
738.सर्वदा साक्षी भाव से रह कर ही कर्म करो ।
739.वाणी का सदुपयोग हो, अतएव भजन कीर्तन जप करते रहो ।
740.मौत तो आनी ही है, फिर उससे भय कैसा ।
741.स्थिर भाव से योग चित होने से एकांत ध्यान में जो अनुभव प्राप्त करेंगे वे आनंद देने वाले होगें।
742.सत्य असत्य दो मार्ग हैं - एक परम तत्व की ओर ले जाता है दूसरा रसातल की ओर।
743.मन तो चंचल है - उसकी वृत्तियाँ भी उसी की तरह हैं - जो कहीं नहीं ठहरहतीं।
744.निर्मम निरहंकार ही सत्य की प्राप्ति कर पाता है।
745.वे महान हैं जो अपने को लघु जान कर दूसरों की सेवा प्रेम से करते हैं।
746.शुद्ध विचार विकारी हृदय को स्वच्छ करने का साधन हैं।
747.दुःख-सुख चित् की भावना पर आधारित रहते हैं - दोनों में चित् की अवस्था को दृढ़ रखना श्रेयस्कर रहता है।
748.तुम्हारी वाणी जब किसी के ह्रदय पर आघात करती है, तो तुम्हें पाप की प्राप्ति होती है।
749.मित्र समय पा कर घात कर देते हैं - शत्रु प्रतिघात करते रहते हैं - इस संसार प्रपंच में सब स्वार्थी ही हैं - इसलिए सभी से सावधान रहो।
750.ऊँचे विचार सबलता की निशानी हैं तुच्छ विचार दुर्बलता को प्रकट करते हैं |
751.जब तक तू अपनी चिंता करता रहेगा, सर्वेश्वर तभी चिंता नहीं करेंगें।
752.ऐसा कौन है जो क्रोध की अग्नि में नहीं जल सकता?
753.हृदयदीप जब ज्ञान रूप में प्रकाशित होता है तभी स्व पन का बोध होता है।
754.तुम कहां किसे ढूंढ रहे हो - आगे क्या रखा है? वह तो तुम्हारे पास ही है, बस उसे पहचान लो।
755.तुम्हें यह आभास होना कि तुम हो, मिथ्या है भ्रम है - इसे छोड़ देने पर ही सत्य प्रतिभासित होगा।
756.अमर्ष नहीं तभी हर्ष प्राप्त होता है।
757.अन्धकार प्रकाश से नष्ट होता है, अज्ञानान्धकार ज्ञान के प्रकाश से।
758.पर्यतन करो ह्रदय को विमल भाव प्राप्त हो, इस हेतु जप करना चाहिए।
759.वासनाएं संस्कारों से अधिक इन्द्रियों द्वारा प्रेरित होती हैं - प्रभु से प्रेमाशक्ति होने पर वह कुछ भी नहीं बिगाड़ सकतीं।
760.मानव मात्र की सेवा करो उससे सब कुछ प्राप्त हो जाता है।
761.अहंकार का बीज नाश करने के लिए आत्मतत्व को जानना आवश्यक।
762.अरे इस मन के वश में होकर बड़े - बड़े शूरवीर ध्वस्त हो गये केवल वही सफल हुए जिन्होंने मन को वश में कर लिया। इसलिए इस मन को वश में रखना चाहिए।
763.रे मन धीर पुरूषों सा आचरण कर अधीरता से तो कुछ भी प्राप्त नहीं होता केवल व्याकुलता बढ़ेगी भाग्य से पहले कुछ भी प्राप्त नहीं होता यही विधाता का नियम है।
764.रे मन जिसे कुछ चाहिए उस में प्रेम कहाँ रह सकता है|
765.रे मन जहाँ तक तेरी बुद्धि जाती है वहीं तक तेरा मैं पन है उससे परे परमतत्व की खोज करना तेरे लिए असम्भव है अतएव उसी की शरण ग्रहण करले।
766.रे मन कस्तूरी मृग की तरह मत भाग - अपने भीतर ही परमसत्य का अन्वेषण कर।
767.रे मन तूँ चाहे जितना जोर लगा ले - आत्मा तो एक दिन बन्धन रहित हो जाएगी।
768.रे मन जो होना है वही होगा जो भाग्य में है वह अपने आप प्राप्त होता है - प्रयास करने से कुछ अधिक प्रभू कृपा से ही प्राप्त हो सकता है।
769.प्रेमी प्रेम करता है - लोभी लोभ करता है - मोहित मोह में फंसा है - पर कोई नहीं जानता कि वह बरबाद हो रहा है - किसी भी विषय में फंसना जाल में बंधना है।
770.आनन्दरस आपकी आत्मा में ही समाहित है।
771.आज वर्तमान है कल भविष्य आज को अच्छी तरह जानलो कल को कौन जान पाया है।
772.तुम स्वयं में दोष ढूँढने की अपेक्षा दूसरों मे उन्हें ढूँढते हो तो तुम्हारा चित्त शुद्ध कैसे हो सकता है।
773.जीव आत्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है।
774.जब जी चाहा जैसा भी आचारण कर लिया यह सब व्यर्थ है इससे तो संसार नहीं चलता जिसका एक नियम है।
775.जड़ या उज्जड़ न बनो प्रकृति का साथ दो उसे उज्जाड़ने का प्रयास न करो।
776.चाहे कोई दिग्विजयी हो जाये पर वह काल जयी नहीं हो सकता।
777.चाहे जितना जोड़ लो कितना इकट्ठा कर लो साथ कुछ जाने वाला नहीं मुट्ठी बाँध कर आए थे हाथ पसारे जाओगे।
778.इन्द्रियाँ विषय रूपी विष पान के लिय ललायित रहती हैं, मन को उनका पीछा मत करने दो।
779.संसार में अगर तुम्हें कुछ अच्छा नहीं लगता तो यह आवश्यक नहीं वह बुरा ही हो।
780.आशा की एक किरण भी आशा जागृत रखती है।
781.जो चिन्तनीय नहीं उसकी चिन्ता न करें।
782.दूसरों के सुख से ईर्ष्या न कर के दूसरों के दुखः दूर करने की चेष्टा करो।
783.अकसर दुखों में आई आतुरता भी ज्ञान प्रदायिनी हो जाती है।
784.यदि तुम प्रकृति की किसी भी वस्तु को घृणा की दृष्टि से देखते हो तो इससे प्रभु का अपमान ही होता है।
785.शरीर मन के द्वारा, मन चित्त के द्वारा, चित्त आत्मा के द्वारा, आत्मा परमात्मा के ध्यान के द्वारा ही संयमित हो सकते हैं।
786.यदि संसार एक सागर है तो राम नाम जल पोत है जिसमें सवार होकर उसे पार करना कठिन नहीं है।
787.संसार का कुछ न कुछ तो आधार है जो वह टिका हुआ है।
788.सभी रंग उसी बहुरंगी के हैं फिर किसी रंग से भेद भाव क्यों करते हो।
789.धीरज से ही शान्ति प्राप्त होती है।
790.थोड़े से संकटो के बादल गहराते हैं तुम दुःखी हो जाते हो पर सुख रूपी वर्षा तो उसके बाद ही होती है।
791.भूत की चिन्ता क्यों करते हो वर्तमान की चिन्ता करो भविष्य अपने आप उज्जवल हो जाएगा।
792.दूसरा कोई नहीं तुम स्वंय को ही अपने कर्मों को भोगना है।
793.सभी के लिए कोई न कोई मर्यादा निश्चित होती है उसे लांघना अपना नाश करना है।
794.तुम्हारा क्रोध तुम्हारे शत्रुताओ को भले ही नष्ट करादे किन्तु तुम विनय सम्पन्न होकर पुर्ण संसार को वश में कर सकते हो।
795.क्या कभी प्यासों की प्यास बुझाने कुआं पास आता है - पर उसकी बात ही अलग है उसे तुम पुकारो तो सही वह तुम्हारे पास स्वयं आकर तुम्हारी प्यास बुझाऐगा।
796.सर्व जन वशीकरण मंत्र बस एक ही है वह है तुम्हारा मृदुल व्यवहार।
797.जीव का जीवन से सामञ्जय बना कर रखना ही देह का धारण है।
798.सफलतम जीवन की कुन्जी विन्रम बने रहना।
799.इस संसार में प्रभु ने सब कुछ तुम्हारे लिए ही तो बनाया है।
800.शान्ति और निष्चय ही ज्ञान के हेतु हैं।
801.प्रभू का चिन्तन करने से हृदय मे आए विचार स्वंय ही शुद्ध हो जाते हैं।
802.अधिक ऊँचा बोलने से किसी भी आवाज़ को नहीं दबाया जा सकता चुप रहना ही इसका एक मात्र समाधन है।
803.अपने आप को मारने से आत्मा जागृत होती है।
804.अपने निज को दूसरों पर आरोपित करना भी अहंकार ही है।
805.जो दुःख तुम्हें सब से बड़ा शत्रू दिखाई देता है उसके दूर हो जाने पर तुम्हारी धीरता और निर्भयता भी नष्ट हो जाती है।
806.कोई किसी से कुछ लेता नहीं कोई किसी को कुछ देता नहीं यह संसार तो ऋण बंधु है।
807.मित्रों का क्या वह तो तुम्हारी प्रशंसा ही करेंगें बलिहारी तो शत्रुओं पर जाओ जो तुम्हारी कमियाँ दिखाते हैं।
808.दुष्टजन की पहचान बहुत सरल होती है जो तुम्हारी प्रसन्ता से द्वेष करे वह दुष्टजन ही होता है।
809.काम प्रिय निष्काम यदि हो तो सफलता के सोपान पर चढ़ पाता है यह सत्य है - अर्द्धसत्य नहीं।
810.अन्धकार प्रकाश से नष्ट होता है, अज्ञानांधकार ज्ञान के प्रकाश से।
811.क्रोध मन को तो जलाता ही है, बुद्धि का नाश भी कर देता है।
812.रे मन चातुर्य में क्या धरा है उसके सामने कोई चतुराई काम न आएगी।
813.रे मन यहाँ तेरा कौन है चुपचाप यहाँ से दूर चले जा जहाँ तेरा सच्चा मित्र निवास करता है।
814.रे मन मुर्ख चेत जरा क्यों इन्द्रियों द्वारा ठगा जा रहा।
815.जैसा तूँ चाहे वैसा ही हो यह तेरा अहम् है ।
816.चाहे - अनचाहे पापों के प्रायश्चित हेतु भगवती गायत्री की शरण ग्रहण करें ।
817.तुम्हारा क्या तुम तो क्षण में सुखी दुखी हो जाते हो, संसार को तो क्रीड़ा मात्र समझो जिसमें जीत हार तो लगी ही रहती हैं।
818.तुम्हरी सभी समस्याओं का समाधान तुम्हारे अपने पास ही है तुम केवल अपने भीतर के आश्रय का सहारा ले कर तो देखो।
819.उसके नाम को हृदय में धारण करो और जगती के काम भी करते रहो, तब तुम्हारा जीवन सफल होगा।
820.न जाने प्राण कब प्रयाण कर जावें तब किस देह का अभिमान करते हो।
821.अवरुद्ध मार्ग भी विघ्न कारक नहीं रहते यदि प्रभु की दृष्टि जीव पर रहे ।
822.विवेक हीन, पशु के तुल्य ही है।
823.कभी कभी छोटी बातें भी तिल का ताड़ बन जाती है इसलिए बोल ने से पहले सोच ले ।
824.शरीर को नहीं आत्मा को सँवारने का प्रयास करना चाहिए शरीर नाशवान है आत्मा कभी मरती नहीं यह जानते हुऐ भी तुम अनजान क्यों बने हुए हो।
825.तुम्हारी इच्छा है कि तुम प्रकाश या अन्धकार किसको महत्व देते हो - महत्व तो दोनों का अपना अपना है।
826.तुम्हारा जो निश्चय है वह कभी न कभी अवश्य पूर्ण हो जाएगा दृढ़ संकल्प भाग्य में परिवर्तित हो जाता है यह विधि का विधान है।
827.तुम्हारे लिए कर्मक्षेत्र ही युद्धक्षेत्र है।
828.दूसरा कोई नहीं तुम स्वयं को ही अपने कर्मों को भोगना है।
829.तुम्हारा क्रोध तुम्हारे शत्रुताओं को भले ही नष्ट करादे किन्तु तुम विनय सम्पन्न होकर पुर्ण संसार को वश में कर सकते हो।
830.दुःख रूपी काँटों की चिन्ता क्यों करते हो फूल तो काँटों के बीच ही खिलते हैं।
831.अपने हृदय को इतना विशाल कर दो कि सारा जगत उसमें समा जाये।
832.वर्षा चाहे जितनी भी हो - सूखे ठूंठ को हरा नहीं कर सकती, इसी प्रकार जिनका हृदय सूख गया हो, वह प्रभु की कृपा वर्षा से कभी भी पुलकित नहीं होता।
833.सफलतम जीवन की कुन्जी विनम्र बने रहना।
834.जीवन फूलों की सेज नहीं काँटों की सेज है।
835.प्रभू का चिन्तन करने से हृदय मे आए विचार स्वयं ही शुद्ध हो जाते हैं।
836.जीवन पवन के झोंके की तरह होता है।
837.क्रोधी को मारने की आवश्यकता नहीं वह तो स्वयं नष्ट हो जाता है।
838.यदि तुम में अहंकार बैठा हुआ है तो तुम सबको शत्रु बना लोगे।
839.भोग - रोग और शोक देता है, योग - स्वस्थ शरीर और उल्लास प्रदान करता है।
840.न शुभ न अशुभ कर्मों की गहन गति को केवल परमेश्वर ही जानते हैं अब सब सभी कर्मों को उन्हें समर्पित करते रहो।
841.वही शुभ अवसर हो जाता है - जब तुम कोई भी काम करने में लगो।
842.साहस के साथ अपनी वृत्तियों को प्रभु की ओर उन्मुख रखो।
843.सब कुछ तुम्हारे पास है पर यदि भगवान साथ नहीं हैं तो सब कुछ व्यर्थ है।
844.तुम्हारा ज्ञान निर्मल है पर तुम्हारी बुद्धि द्वन्द में फँसी हुई है इस मर्म को समझ कर उसे भी ईश्वरार्पण कर दो।
845.सभी तरह की मादकता सब कुछ नष्ट करने में सक्षम है इसलिए वह त्याज्य है।
846.ईश्वर के गुणों को-सुनना, देखना-मौन रहना आदि को अपनाने का प्रयास करो।
847.सभी विद्वानों को सुनते रहो पर यह जरूरी नहीं कि सबने सत्य को पूर्णतया जान ही लिया हो।
848.मन तो स्वभाव से ही असहज होता है - प्रयास से अभ्यास के द्वारा उसे सहज करना पड़ता है।
849.जय सिया राम
850.धीरज से संयम व विवेक से अपने मन के घोड़े को काबू में करो।
851.आज का दुःख सहते रहो - पक्के होते रहोगे - कल की खुशियों के लिए आंचल बिछा कर रखो।
852.तुम्हारी विफलता ही सफलता का प्रथम सोपान है - धीरता से अपने लक्ष्य में जुटे रहो।
853.मनुष्य का शत्रु कौन है मित्र कौन इसका निर्णय मनुष्य को स्वयं ही करना चाहिए पर अंहकार उसका सबसे बड़ा शत्रू होता है।
854.जिस प्रकार रात्री होने पर विश्राम लेते हैं - मृत्यु भी जीवन का विश्राम ही है।
855.jai siya ram