गुरु पूर्णिमा – 7/7/2009
मेरी विद्यात्मा
सुनो, तुम-जीवन में अगर सोये हुए हो तो अब उठकर बैठ आओ, यदि बैठे हुए हो तो खड़े हो जाओ, यदि खड़े हो तो आगे बढ़ो। पल-पल जीवन कट रहा है, उसके साथ अपने आपको समाप्त न करो, जब तक प्राणों की इति नहीं हो जाती, तब तक पूर्णता के लिए प्रयास करते रहो। क्या तुम समझते हो कि प्राणों की समाप्ति के पश्चात् कुछ भी नहीं रहता, कुछ भी नहीं बचता, तो यह तुम्हारी भूल ही है – क्योंकि तुम केवल एक शरीर नहीं हो, तुम आत्मा हो, यह आत्मा जो निर्दवन्द है, निर्बाध है, जो काल से परे है – जो जीवन और मृत्यु से परे है – उसी के विषय में प्रभु जर्नादन ने श्री भगवद् गीता में कहा है :-
हे अर्जुन – इस आत्मा को शस्त्रादि नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकता। क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य अकलेद्य और अशोषय है, तथा यह आत्मा निःसन्देह नित्य सर्वव्यापक अचल स्थिर रहने वाला और सनातन है। यह आत्मा अव्यक्त अर्थात इन्द्रियों का अविषय और यह आत्मा अचिन्त्य अर्थात मन का अविषय है यह आत्मा विकार रहित अर्थात अपरिवर्तनीय है।
जब तक यह आत्मा तुम्हारे शरीर में विराज रही है – तब तक प्राण स्पन्दन कर रहे हैं और जब इस देह को यह आत्मा त्याग देगी, तब तुम स्व हीन शव मात्र हो जाओगे अर्थात मुर्दा शरीर – सूखी लकड़ी की तरह ठूंठ-फिर उस ठूंठ का जो भी परिणाम हो – वह दूसरे लोग देखेंगें – जानेगे ।
तुम देह नहीं हो, शरीर नहीं हो केवल आत्मा हो, इस जड़ शरीर से बंधे हुए केवल एक शरीर से एक देह से नहीं बार-2 तुम्हारी मृत्यु होती है, फिर जन्म होता है-कभी तुम मनुष्य बनते हो कभी वृक्ष, लता, पात आदि कभी तुम देवता बनते हो, कभी राक्षस, न जाने तुम क्या 2 बनते चले जाते हो – पर क्या कुछ बनना तुम पर निर्भर है नहीं सर्वेश्वर जैसा तुम्हें बनाता है, वैसा तुम बन जाते हो, जैसी निर्देशक ने तुम्हारी योग्यता देखी वैसा अभिनय तुम्हें प्रदान कर दिया – तुम कभी बन्दर, भालू बनकर नाच रहे हो, कभी मदारी बनकर बन्दर भालूओं को नचा रहे हो, पर क्या सर्वेश्वर की इच्छा से ही यह सब हो रहा है! जैसी उसकी इच्छा, वैसा सब तुम कर रहे हो – तब तो जो पाप तुम, अपराध तुम करते हो उसका दण्ड तुम्हें क्यों प्राप्त हो ? जो पुण्य तुम बटोरते हो, उसका फल भी तुम्हें क्यों प्राप्त हो – पर तुम नित्त्य प्रति अपने जीवन में तथा दूसरों के जीवन में देख रहे हो कि कभी निराशा हाथ लगती है, कभी आशा के दीप तुम्हारे जीवन में प्रज्वलित होते हैं तुम कभी दुःखी होते हो, कभी सुखी-ऐसा क्यों है ? अवश्य ही सर्वेश्वर ने तुम्हें जो बुद्धि दी है तन मन और इन्द्रियां दी है वे वैसे ही नहीं दी ये सब तुम्हारा स्वत्व है, तुम्हारा अपना है, उनसे जैसा चाहो तुम आचरण करो अच्छा या बुरा – जब तुम जीवन से लौट कर मृत्यु की गोद में बैठ कर उस सर्वेश्वर के समक्ष या उसके किसी प्रतिनिधि के समक्ष उपस्थित होते हो तो तुम्हारे जीवन में किए गए कर्मों का लेखा जोखा होता है, उसी के अनुसार तुम्हे भावी जीवन प्रदान कर दिया जाता है चाहे वह जन्म मानव का हो या मानवेतर किसी प्राणी का – या लता पात वृक्षादि का।
इससे सिद्ध होता है, न जाने अब तक तुमने कितने शरीर धारण किए और उनका त्याग किया – क्योंकि तुम एक देह नहीं हो, तुम एक आत्मा हो उस सर्वात्मी का अंश मात्र, सर्वात्मा, सर्वश्वर, परमात्मा, नारायण, विष्णु, शिव – चाहे उसका का कोई भी नाम हो या तुम जिस भी नाम से उसे पुकारो। तुम विनाशी नहीं हो तुम्हारा विनाश सम्भव नहीं है, क्योंकि तुम उस अविनाशी का अंश हो, इसीलिए अविनाशी ही हो जब तुम्हारा देह त्याग होता है तो दूसरे जीवन दूसरी देह में धारण के लिए होता है, समुद्र से उठी वाष्प की तरह, जो बून्द का जीवन धारण कर घरा पर जल रूप में हो, कभी पोखर, तालाब, नद, नदी में परिवर्तित हो, भिन्न-भिन्न रूप धारण करती हुई, बढ़ती चली जाती है – समुद्र की जल तरंग को बाष्प बनने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता, वही वाष्प वृन्द में, जल से, पोस्वर-नद-नदी में परिवर्तित होत्ती चली जाती है। क्या उसे इसके लिए कोई प्रयास करना पड़ता है – नहीं – नहीं तो। उस सर्वेश्वर ने जो अज्ञात है जिसे कोई देख नहीं पाती उसकी गति को जैसे निश्चित किया वैसा स्वतः होता गया।
तो तुम्हारे लिए जो उसने निश्चित किया क्या तुम उसमें संतुष्ट होते हो सुख-दुःख, हानि-लाभ, दैन्य-कलेश जो तुमहारे लिए उसने निर्धारित किए क्या तुम उससे सन्तोष प्राप्त करते हो विचारों और तुम पाओगे कि तुम उस सब से संतुष्ट नहीं होते हो कुछ न कुछ कमी उस विधाता की तुम निकाल ही देते हो – दुःख में भी, सुख में भी जब अन्य जीवधारी मनुष्येतर प्राणी सब कुछ सहते हैं, भोगते हैं, तो तुम्हारे में ही अभाव क्यों दिखाई पड़ता है – उसका एक बड़ा कारण है मनुष्येतर प्राणियों में वह एक चीज जो तुम में है उनमें नहीं है, अगर हे भी तो भी वैसी प्रवर नहीं है जैसी तुम्हारी। वह चीज है तुम्हारा मन जिसके कारण तुम सन्तुष्ट नहीं होते हो- तुम्हारा आत्म पांच कोशो पर टिका हुआ है वह पाच कोश हैं-
- अन्नमय कोश – तुम्हारा शरीर जो दिखाई देता है।
- प्राणमय कोश – तुम्हारे प्राण जो धड़कते हैं।
- मनोमय कोश – तुम्हारा मन जो कहीं टिकता नहीं।
- विज्ञान मय कोश – तुम्हारी बुद्धि जिस पर तुम्हारा अंहकार जीवित रहता है।
- आनन्दमय कोश – तुम्हारी आत्मा जिससे तुम दूर रहते हो।
केवल मन की चंचलता को अगर तुम जीत सको विजय प्राप्त कर सको – तो वह क्या है जिसे तुम प्राप्त नहीं कर पाओगे – इसीलिए आगे बढ़ो मन के घोड़े को नुकेल से संयमित करो और अपने मार्ग पर चल निकलो जिस पर तुम्हें चलना है पर तुम्हास लक्ष्य क्या है उसे तुम पहले जान लो –
तुम्हारा लक्ष्य है उस बिन्दु से मिलना जिससे तुम जुदा हुए हो – एक मार्ग पर भटके प्राणी की तरह तुम्हे अपना मार्ग तलाशना है अपने गंतव्य की ओर बढ़ना है –
अपने स्वामी से बिछुड़ा हुआ भटका हुआ, भूला हुआ एक श्वान भी अपने स्वामी की तलाश करता-करता उसे खोज ही लेता है अपने रेवड से बिछुड़ा हुआ जानवर भी जब तक उसमें मिल नहीं जाता तो उसकी उद्विग्नता उसकी विह्वलता करुणामय ही होती है तब तुम में वह विह्वलता वह वैचेनी क्यों नहीं है – जानते हो इसका कारण ?
इसका कारण है – तुम उस बकरे की तरह हो जिसे व्याध ने सिंह का शिकार करने के लिए एक हरी भरी झाड़ी से बांध दिया है हरी भरी झाड़ी चरता हुआ वह भूल ही गया है कि वह बंधा हुआ है और निपट निर्जन प्रदेश में सिंह का शिकार होने के लिए उसे छोड़ दिया गया है।
क्या तुम्हारी स्थित्ति सर्वथा वैसी ही नहीं है – इस संसार ने हरी भरी झाड़ी की तरह, जिसे तुम चर रहे हो तुम्हारे अपने मृत्यु बोध को भुला दिया है पर कभी न कभी जीवन में जब तुम्हारा स्व जागता है तो तुम्हें मृत्यु का आभास तो होता ही होगा ?
लेकिन मृत्यु का भय तुम्हें क्यों होगा – दरअसल तो तुम्हें जीवन जाने का भय होता होगा – मृत्यु से तुम क्यों डरोगे – पर मृत्यु ध्रुव है, निश्चित है, तब जन्म पुर्वजन्म भी ध्रुव सत्य है।
इसीलिए कहता हूं कि अपने समय को पलों को क्षणों को क्यों नष्ट कर रहे हो बैठो उठो और आगे बढ़ो अपने मार्ग को ध्यान में रखो अपने गंतव्य पर पहुंचने के लिए उद्धत हो जाओ। न देखो दूसरों की तरफ कि सामने वाला उठेगा तो में भी उठूंगा। वह चलेगा तो उसके साथ में भी चलेगा – याद रखो जो पल तुम्हारा है वह बस तुम्हारे लिए ही है।
बस आज के लिए इतना ही।
गुरु पूर्णिमा जुलाई 7, 2009
सदैव ही तुम्हारा
अमर दास