2025 – दो शब्द सजग भगतों के लिए

श्री गणेशाय नमः श्री रामाय नमः   श्री बालाजी नमः

‘ दो शब्द सजग भगतों के लिए ‘

प्रिय भक्तो,

आज गुरु पूर्णिमा का शुभ दिन है – आज श्री गुरु जी की भव्य मूर्ति की प्रतिष्ठा करते हैं – बिल्कुल उन जैसी – सजीव लगे – निर्जीव नहीं – सप्राण – निष्प्राण नहीं – हाथ उठा कर हमें नित्य आशीष प्रदान करे – मुख से हमें ज्ञान दें – अद्भुत हो ? क्या ऐसी मूर्ति प्रतिष्ठित होना इस जग में सम्भव है – नहीं सर्वथा नहीं । आप यही तो कहेंगे। क्योंकि यह मूर्ति सजीव नहीं है – निर्जीव है – अतएव इसमें कोई चेष्टा हो ऐसा कैसे सम्भव है ? 

सुनिये आदि शंकराचार्य इस विषय में क्या कहते हैं :- 

यह मानव ढाँचा क्या है ? 

यह जो दृश्य जगत है जो दिखाई देता है – उसमें आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी यह पाँच सूक्ष्म भूत हैं और उनके शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध पाँच विषय हैं – जिनके ज्ञान हेतु ही पाँच ज्ञानेन्द्रियों का विकास शरीर में हुआ है – जिससे इन पाँचों का ज्ञान होता है। शब्द के लिए कान – स्पर्श के लिए त्वचा – रूप के लिए आँख – रस के लिए जिह्वा और गन्ध के लिए नाक का विकास हुआ है। इन्हीं पाँच ज्ञानेन्द्रियों से इन पाँच विषयों का ज्ञान होता है तथा हाथ – पाँव – वाणी – गुदा व लिंग यह पाँच कर्मन्द्रियाँ है जिनकी सहायता से यह स्थूल शरीर कर्म करता है। यह सृष्टि ज्ञान व कर्म दोनों से संचालित होती है – अतएव प्रकृति ने इस स्थूल शरीर में दोनों की व्यवस्था की है। मनुष्य का स्थूल शरीर 5 ज्ञानेन्द्रियों 5 कर्मन्द्रियों वाला ही नहीं है – जो रक्त, माँस, अस्थि, मज्जा आदि से बना है – बल्कि उस का संचालन करने वाली और भी अन्य कई शक्तियाँ उसके भीतर वर्तमान हैं। स्थूल शरीर का ज्ञान तो डाक्टरों और वैज्ञानिकों द्वारा हो सकता है – किन्तु इसके भीतर की सूक्ष्म शक्तियों का विवेचन तो अध्यात्म ज्ञान का विषय है। मनुष्य के भीतर यह सूक्ष्म शक्ति अन्तःकरण है – इसके चार मुख्य कार्य हैं –  जिसे कार्यों के अनुसार इस को चार भिन्न – भिन्न नाम दिए गए हैं। 

इसका पहला कार्य है – संकल्प विकल्प करना। विभिन्न प्रकार के ‌अच्छे बुरे विचार इसी से उत्पन्न होते हैं। इसलिए इसको मन कहा जाता है। मन का अर्थ – मनन करने से है – यही गुण मनुष्य में होने से उसे मानव कहा जाता है।

दूसरा – मन में जो संकल्प विकल्प उठ रहे है – विचार उठ रहे है – उसमें कौन सा उपयोगी है – कौन सा अनुपयोगी है – किसको ग्रहण करना है – किसको त्यागना है आदि का निश्चय करने वाले तत्व को बुद्धि कहा जाता है। मन के विचारो पर नियंत्रण करना बुद्धि का ही कार्य है जिससे उन विचारों का सही उपयोग किया जा सके। 

चित्त का तीसरा गुण है कि उसमें ‘ मैं ‘ भाव उत्पन्न होता है – जिससे इस जगत में वह अपने आप को पृथक इकाई अनुभव करने लगता है तथा अपना अस्तित्व स्वतंत्र मानने लगता है – इस वृत्ति को ही अहँकार कहा जाता है। इसी अहँकार के कारण वह अपने को उस परम शक्ति ब्रह्म से भिन्न समझने लगता है। यही मुख्य अज्ञान है जिसके मिटने पर वह स्वयं ब्रह्म रूप हो जाता है। मुक्ति के लिए इस अहँकार का त्याग कर (यों कह लो अपने भिन्न अस्तित्व का त्याग कर) उस परम तत्व के साथ एकत्व स्थापित करना ही मुख्य साधना है।

अन्तःकरण का चौथा गुण है चिन्तन करना। किसी इष्ट पर गहराई से चिन्तन करना चित्त का धर्म है। यह चारों तत्व मिलकर ही अन्तःकरण कहलाता है। सभी कार्यों का इसी से आरम्भ होता है फिर इनके आदेश व निर्देश के अनुसार इन्द्रि‌याँ सक्रिय हो कर कार्यरत होती हैं। इसलिए कर्म के ये ही प्रधान घटक हैं।

इसके आगे बढ़े –

जिस प्रकार एक ही अन्तःकरण – वृत्ति भेद से – मन, बुद्धि, चित्त एवं अहँकार के नाम से चार भेद वाला हो जाता है – उसी प्रकार प्राण तत्व देह के अंगों की सक्रियता बनाए रखने वाला मुख्य तत्व है। यह प्राण तत्व वायु में निहित रहता है – जो शरीर में पाँच स्थानों में पहुंच कर – पाँच स्थानों पर रह कर – पाँच प्रकार के कार्य करता है – जिससे इन कार्यों के आधार पर इसे पाँच प्रकार का कहा जाता है।

इस आन्तरिक वायु को ही ‘ प्राणवायु ‘ कहा जाता है। 

  • उदान वायु – कण्ठ में रहता है – जिसका कार्य वाणी प्रकट करना है।
  • प्राण वायु – कण्ठ और नाभि के मध्य रहता है – जिसका कार्य श्वांस लेना और छोड़ना है।
  • अपान वायु – नाभि और गुदा के मध्य रहता है – जिसका कार्य मल मूत्र का त्याग है। 
  • समान वायु – नाभि केन्द्र में रहता है – जिसका  कार्य प्राण अपान के मध्य सन्तुलन रखना है। 
  • व्यान वायु – सम्पूर्ण देह में व्याप्त रहता है – जिसका कार्य रक्त संचालन है।

यही प्राण वायु जब बाह्य अन्तरिक्ष में रहती है तो वह भी पाँच प्रकार की होती है – नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय । 

  • नाग वायु का कार्य है विस्तार करना ।
  • कूर्म वायु का कार्य है संकोच करना ।
  • कृंकर वायु का कार्य है जम्हाई लेना ।
  • देवदत्त वायु का कार्य है भूख प्यास लगाना । 
  • धनंजय वायु का कार्य है निद्रा व ऊंघ लगाए रखना ।

जिस प्रकार स्वर्ण एवं जल के विभिन्न कार्यो के अनुसार विभिन्न नाम पड़ जाते हैं – उसी प्रकार एक प्राण विभिन्न नामों उसके कार्यो द्वारा से पुकारा जाता है।

जिस स्थूल शरीर का हमने पूर्व में वर्णन किया है – उसके भीतर एक सूक्ष्म शरीर भी होता है जो इन्ही स्थूल तत्वों के सूक्ष्म रूपों से बना होता है।

मृत्यु के समय स्थूल पदार्थों से बना हुआ स्थूल शरीर ही मृत होता है किन्तु इसके सभी सूक्ष्म तत्व जीवित रहते हैं जो शरीर से बाहर निकल कर सूक्ष्म लोकों में प्रवेश करते हैं। यह सूक्ष्म शरीर पाँचो कर्मन्द्रि‌यों – पाँचों ज्ञानेन्द्रि‌यों – पाँचों प्राण – पाँचों सूक्ष्म भूत – मन, बुद्धि, चित्त और अहँकार रूपी अन्तःकरण चतुष्टय के साथ अविद्या, काम एवं कर्म सहित जीवित रहता है – जो समय आने पर पुनः नया स्थूल शरीर धारण करता है। सूक्ष्म तत्वों से बने हुए इस शरीर को सूक्ष्म शरीर कहते है जो पुनर्जन्म धारण करता है। 

इस सूक्ष्म अथवा लिंग शरीर का निर्माण सूक्ष्म भूतों से होता है जो अपंचीकृत होते हैं। किन्तु अहँकार वश इसमें वासना का उद‌य हो जाता है जिससे उसमें भोग वासना उत्पन्न हो जाती है। इसी वासना के कारण वह कर्मफलों का अनुभव करने लगता है। अच्छे बुरे कर्मफलों का अनुभव सूक्ष्म शरीर को ही होता है – स्थूल शरीर को इसका अनुभव नहीं होता। इसलिए मृत्यु के बाद भी यही सूक्ष्म शरीर इनका अनुभव करता हुआ अन्तराल में स्वर्ग नरक की अनुभूति करता है। इस सूक्ष्म शरीर की एक विशेषता होती है कि इसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं होता। यही इसका अज्ञान है – इसका वास्तविक स्वरूप वह शुद्ध चैतन्य आत्मा है जो स्वयं ब्रह्म स्वरूप ही है। किन्तु यह अज्ञान इसका अनादि काल से ही है। इसी कारण इसे ‘ आत्मा ‘ अथवा ‘ जीवात्मा ‘ सम्बोधित किया जाता है। अपने स्वरूप का ज्ञान होने पर इसकी यह उपाधि मिट कर यह शुद्ध चैतन्य ब्रह्म स्वरूप हो जाता है। इसका ब्रह्म से भेद का मुख्य कारण ‘अज्ञान’ मात्र है।

जिस प्रकार स्थूल शरीर की अभिव्यक्ति जाग्रत अवस्था है, उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर की अभिव्यक्ति स्वप्न अवस्था में होती है – जिसमें केवल वही शेष रहता है। स्थूल शरीर की प्रतीति इसमें नहीं होती। स्वप्नावस्था में इसका चैतन्य स्वरूप ही भिन्न-भिन्न दिखाई देने वाले पदार्थो के रूप में दिखाई देता है – जो वास्तव में होते नहीं है पर दिखाई देते हैं। ये इस चैतन्य परात्मा के ही विभिन्न रूप है। स्वप्नावस्था में बुद्धि वासना युक्त एवं कर्त्ता रूप में प्रतीत होती है – जो कर्म जाग्रत अवस्था में किये गए हैं – जाग्रत की वासनाएँ ही स्वप्नावस्था में प्रकट होती है। इस प्रकार स्वप्नावस्था में सूक्ष्म शरीर की क्रियाएँ होती हैं। सूक्ष्म शरीर में चैतन्य आत्मा असंग रहता है – जिससे वह केवल अनुभूति करता है। किन्तु जो कर्म स्वप्नावस्था में बुद्धि द्वारा किये जाते हैं वह केवल जाग्रत में किये गए कर्मों की अनुभूति मात्र है। उसमें लिप्त न होने से स्वप्नावस्था में किये गए कर्मों का वह भोक्ता नहीं होता क्योंकि वह स्वयं कर्म नहीं करता है।

शरीर में स्थित यह चिदात्मा पुरुष अपने सम्पूर्ण कार्य इसी सूक्ष्म शरीर के माध्यम से करता है। बढ़ई के बसोले की तरह यह लिंग शरीर उसका उपकरण मात्र है। इसलिए लिंग शरीर कर्मों का कर्त्ता नहीं होता है – वह कर्मो का माध्यम मात्र होता है।

नेत्रों के सदोष अथवा निर्दोष होने से प्राप्त हुए अन्धापन, धुंधलापन अथवा स्पष्ट देखना आदि नेत्रों का ही धर्म है। इसी प्रकार बहरापन अथवा गूंगापन आदि भी श्रोत्रादि के ही धर्म है – सर्वसाक्षी आत्मा के नहीं। जिन तत्वों से सूक्ष्म शरीर का निर्माण होता है वे तत्व अपने-अपने विशिष्ट धर्मो के अनुसार अपने कर्म करते रहते हैं – ये आत्मा के धर्म नहीं है। वह तो केवल इन सब का साक्षी मात्र है।

यह सूक्ष्म शरीर जिन तत्वों से निर्मित हुआ है उन सभी तत्वों के भिन्न-भिन्न धर्म है जो अपना-अपना कार्य करते रहते है। इन तत्वों में एक तत्व प्राण भी है। शरीर में श्वास लेना व छोड़ना, जम्हाई लेना, छींकना, शरीर कम्पन, उछलना, भूख प्यास का अनुभव होना आदि प्राणों के धर्म है जो शरीर में सन्तुलन बनाये रखते है तथा शरीर की आवश्यकताओं को अनुभव कराते हैं।

सूक्ष्म शरीर में अन्तःकरण का निर्माण सर्वप्रथम होता है – जिसमें एक तत्व अहँकार है। इस तत्व का धर्म है ‘ मैं ‘ पन का अनुभव करना। ‘ मैं हूँ ‘ इनका अनुभव अहँकार के ही कारण होता है। इस तत्व के नष्ट होने पर ‌जीव को अपनेपन का अनुभव नहीं होता। यह अन्तःकरण भी प्रकृति तत्वों द्वारा निर्मित होता है – किन्तु यह चिदाभास के तेज से व्याप्त रहता है जो आत्मा का ही तेज है।

‘ मैं ‘ पन का अनुभव अहँकार के ही कारण होता है। इसी अहँकार के कारण जीव जो भी कर्म करता है उसको वह समझता है कि मैं ही कर रहा हूँ। इसलिए ही स्वयं कर्त्ता हो जाता है, तब कर्मों का कर्त्ता होने के कारण वह कर्मफलों का भोक्ता भी हो जाता है। अहँकार के हटने पर वह कर्मों के कर्त्ता पन एवं भोक्ता पन से मुक्त हो जाता है। वह सभी कर्मों को प्रकृति के गुणों के अनुसार अपने आप हुए मानने लगता है। यही इसकी मुक्तावस्था है।

गीता में कहा गया है – वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, तो भी जिसका अन्तःकरण अहँकार से मोहित हो रहा है – ऐसा अज्ञानी ही ‘ मैं कर्त्ता हूँ ‘ ऐसा मानता है (गीता 3 / 27)। यही अहँकार – तमोगुण से युक्त हो कर जाग्रत – रजोगुण से युक्त हो कर स्वप्न एवं सत्वगुण से युक्त हो कर सुषुप्ति अवस्था का अनुभव करता है।

अध्यात्म में अहँकार के मूल को पाप माना है क्योंकि इसी से मनुष्य में कामनाएँ – वासनाएँ – इच्छाएँ आदि पैदा होती है तथा इनकी पूर्ति के लिए ही वह अनेक पाप कर्म करता है। जिनका फल भी उसे भोगना पड़ता है। जब कोई विषय अथवा कार्य उसकी इच्छाओं वासनाओं को पूर्ण कर देते हैं तो मनुष्य सुखी होता है और न पूर्ण होने पर वह दुःखी होता है। इसलिए सुख दुःख की अनुभूति अहँकार के कारण ही होती है। 

ये अहँकार के धर्म है – जब तक अहँकार है तब तक मनुष्य सुखी – दुःखी होगा ही। इस से मुक्त होने का अन्य कोई उपाय नहीं है। आत्मा नित्यानन्द स्वरूप है – उसे कभी सुख दुःख की अनुभूति नहीं होती है।

जहाँ सुख दुःख की अनुभूति अहँकार के कारण होती है, वहाँ आनन्द की अनुभूति आत्मा के कारण होती है क्योंकि आत्मा स्वतः प्रियतम है – आनन्द स्वरूप है।

आनन्द केवल आत्मा का स्वभाव है – इसलिए उसी को आनन्द की अनुभूति होती है।  

विषय स्वयं आनन्द स्वरूप नहीं है। सुख दुःख की अनुभूति आत्मा का धर्म नहीं है। इसी कारण सुषुप्ति अवस्था में सभी विषयों का अभाव हो जाता है – तो भी आत्मा आनन्द का ही अनुभव करती है। श्रुति कथन इसके प्रमाण है जो प्रत्यक्ष, आगम एवं अनुमान तीनों प्रमाणों से यही सिद्ध करती है कि आनन्द आत्मा का ही स्वभाव है।

चलो सिद्ध हुआ कि इतना कुछ होने पर – मानव का यह संरचनात्मक ढाँचा है – इन के बिना मानव एक मूर्ति है – जिस प्रकार गुरु मूर्ति अथवा कोई भी मूर्ति। इसलिए मूर्ति में वे गुण नहीं आ सकते – क्योंकि वह सजीव नहीं है – वह तो एक स्थिर पदार्थ ही है। किन्तु फिर भी हम उसमें गुरु आत्म भाव का अनुभव करते हुए उसकी पूजा करते हैं।

अब आपने यह जान लिया है कि मानव अहं भाव के कारण ही उस द्वारा किये गए कार्यों का कर्त्ता मानता है। उसी भाव के कारण वह कर्मों से लिप्त होकर अपनी वासनाओं को पूर्ण करता हुआ कर्म फल का भोगता बन जाता है और उन्हीं अच्छे बुरे कर्म फलों को जन्म जन्मांतर तक भोगता रहता है।

यदि आप से पूछा जाए कि आपको कैसा जीवन चाहिए ? तब आपका उत्तर होगा – जीवन में सुख हो, समृद्धि हो – कोई भी मानव इस से परे होना नहीं चाहता – विकसित परिवार हो, कहीं कोई कलेश न हो – ऐसी जीवन की प्रक्रिया सभी चाहते हैं। कोई नहीं चाहता जीवन इसके प्रतिकूल हो।

पर क्या कभी सोचा है आपने – जीवन का उद्देश्य क्या है ? प्रभु ने जीवन क्यों प्रदान किया ? 

जन्म से शिशु, बाल्य, किशोर, तरुण, प्रौढ़ और वृद्ध – यह देह पथ है – उसके उपरान्त मरण – यही तो है जीवन का अगला पड़ाव – यही जीवन नद है – जिसमें जीव अकेला गमन करता है – पर इस यात्रा में भाग्यशाली आत्माएँ वे है जो इस पथ पर चलते हुए पूर्ण जीवन जीती हैं – कई जीव आत्माएँ तो बीच में ही चलते-चलते अदृश्य हो जाती हैं – वस्तुतः इस प्रकार का जीवन – जीवन नहीं है।

इस जीवन में कोई कौतुक नहीं है – ऐसे अधूरे जीवन से कोई लाभ नहीं है – विधाता ने तुम्हें मरने जीने के लिए नहीं पैदा किया। युगो-युगो से तुम बार – बार धरा पर उतरते हो – उद्देश्य हीन जीवन जीते हो – और चले जाते हो। 

आसमान पर उड़ते हुए पंछियो को देखो – कई प्रकार के पक्षी धरा पर आकर दाने चुगते नज़र आएंगे – पक्षी कोई खेती बाड़ी नहीं करते – फिर भी वे अपना पेट भर लेते हैं – जंगलों में रहने वाले पशुओं पर विचार करो – जिनके लिए घास फूस पत्ते प्रभु ने लगा रखे होते हैं – जिनसे उनका जीवन चलता रहता है – उनका अन्य कोई  उद्देश्य नहीं होता – पर मानव जीवन तो इनसे परे हट कर है। पशु खाने के सिवा और कुछ नहीं सोचते – पर इससे हट कर मानव का जीवन अलग होता है। मानव जीवन के उत्थान के लिए – मानव को सद्‌कर्म करने के लिए सभी सनातन ग्रन्थों में कहा गया है – फिर भी कई प्रकार के मानव संसार के पचड़े में फंस कर अनुचित मार्ग पर चल निकलते हैं। उस मार्ग पर चल कर कुछ‌ काल तो वे तृप्त रहते हैं। पर उनका अन्त तो अन्धकारमय होता है, ऐसा प्रायः देखा जाता है। लूट पाट, हिंसक वृत्ति और अत्याचार मानवता के विरुद्ध है – फिर भी मोह माया के चंगुल में फंसे प्राणी कुमार्ग पर चल कर समाज की परिवार की शान्ति तो भंग करते ही है – अपना आने वाला समय या अगला जन्म संकटमय कर लेते हैं।

जैसा करोगे, वैसा ही फल प्राप्त होगा – यह प्रकृति का नियम है। जैसा बर्ताव तुम दूसरों के साथ करते हो, समय आने पर वैसा ही बर्ताव दूसरे तुम से करेंगे। इस लिए शुद्धमार्ग पर शुद्ध नीयत से चलोगे तो नियति तुम्हारा साथ देगी।

कभी कभी देखा जाता है – शुद्ध मार्ग पर चलते हुए कई अवरोध जीवन में आ जाते हैं – वे गत जन्मों के बुरे किए गए कर्मों का ही फल होता है – ऐसा मान कर प्रभु का भजन करते हुए समय निकालना चाहिए। प्रभु का भजन, शुभ मार्ग पर चलने वाले प्राणी को, संबल प्रदान करता है। तब नियति भी तुम्हारा साथ देती रहेगी। प्रकृति का धर्म है – अन्धकार के बाद प्रकाश होना ही होना है। अतएव अन्धकार में प्रभु का संबल – टार्च की रोशनी की तरह होता है। 

ऊपर मैंने मानव देह का वर्णन किया है – उसे बार बार चिन्तन में रख कर – अपने अन्तःकरण को जागृत रखें। किसी भी प्रकार का अंहभाव न रख कर – जीवन को अंह से मुक्त रख कर – सरल जीवन अपनाएँ। 

इसी धरा पर जो भी है – वह सब नष्ट प्रायः है – सब कुछ समय पर नष्ट हो जाता है। इसलिए कहा गया है           ” संसृति सः संसार ” – जो परिवर्तित हो जाना, नष्ट हो जाना है – उसे आवश्यकता से अधिक इकट्ठा कर के कब तक संभालोगे ? जीवन में यदि सुख चाहिए तो लालच का त्याग करो – जितने में गुजारा हो, उतना इकट्ठा करो।

संसार की कोई भी वस्तु सदा सुखमय नहीं होती – अधिक धन सम्पदा वाले प्राणियों को मैंने विभिन्न प्रकार के रोगों से ग्रस्त देखा जिसमें वे अपने शौक की वस्तुएँ भी खा नहीं पाते – तब उन वस्तुओं को एकत्र करके वे क्या करेंगे ? 

इसलिए सौम्य भाव से जीवन व्यतीत करते हुए – सभी प्रकार के अंह का त्याग रखते हुए – जो भी है प्रभु द्वारा प्रदत्त है – मेरा कुछ नहीं है – उसका उसके ही अर्पण का भाव रख कर – स्वतः निष्काम भाव में रह कर – प्रभु के बताए मार्ग पर चलते हुए – गीता रामायण उपनिषदो आदि का अध्ययन मनन करते हुए – सद्‌संगति का अनुगमन करते हुए – भूल से भी कभी अपचिंतन न करते हुए – प्रभु कीर्तन करते हुए – समय बिताइ‌ये। 

आज के लिए इतना ही ! फिर कभी और –

सदैव तुम्हारा,
अमर दास 

श्री गुरु पूर्णिमा – जुलाई 10, 2025 – सिद्धार्थी सम्वत्सर ( विक्रम संवत् 2082 )