शिव चालीसा

दोहा

अज अनादि अविगत अलख, अकल अतुल अविकार । वन्दौ शिव पद युग कमल, अमल अतीव उदार ॥ आर्तिहरण सुख करण शुभ, भक्ति मुक्ति दातार । करौ अनुग्रह दीनलखि, अपनों विरद विचार || पर्यापतित भव कूप महँ, सहज नरक आगार । सहज सुहृद पावन पतित, सहजहि लेहु उबार ।।

पलक पलक आशा भरयो, रह्यो सुबाट हरो तुरन्त स्वभाव वश, नेक न करो अवार।। चौपाई निहार।

जय शिव शंकर औढरदानी, जय गिरि तनया मातुभवानी। सर्वोत्तम योगी योगेश्वर, सर्वलोक ईश्वर परमेश्वर ॥ सब उर प्रेरक सर्व नियन्ता, उपद्रष्टा भर्ता अनुमन्ता। पराशक्ति पति अखिल विश्वपति, परब्रह्म परधाम परमगति ॥

सर्वांतीत अनन्य सर्वगत, निजस्वरूप महिमा में स्थितरत। अंग भूति भूषित श्मशानचर, भुंजग भूषण चन्द्रमुकुटधर । वृषवाहन नन्दीगण नायक, अखिल विश्व के भाग्य विधायक। व्याघ्रचर्म परिधान मनोहर, रीछ चर्म ओढ़े गिरिजावर ||

कर त्रिशूल डमरूवर राजत, अभय वरद मुद्रा शुभसाजत । तनु कर्पूर गौर उज्जवलतम, पिंगल जटाजूट सिरउत्तम ॥ भाल त्रिपुण्ड्र मुण्डमालाधर, गलरुद्राक्षमाला शोभाकर। विधि हरि रुद्र त्रिविध वपुधारी, बने सृजन पालन लयकारी ॥

तुम हो नित्य दया के सागर, आशुतोष आनन्द उजागर । अति दयालु भोले भण्डारी, अग जग सब के मंगलकारी सती पार्वती के प्राणेश्वर, स्कन्द गणेश जनक शिव सुखकर हरिहर एक रूप गुणशीला, करत स्वामी सेवक की लीला ||

रहते दोउ पूजत पूजवावत, पूजा पद्धति सबन्हि सिखावत । मारुति बन हरि सेवा कीन्ही, रामेश्वर बन सेवा लीन्ही ॥ जगहित घोर हलाहल पीकर, बने सदाशिव नीलकण्ठ बर । असुरासुर शुचि वरद शुभंकर, असुर निहन्ता प्रभुप्रलयंकर ।।

‘नमः शिवाय’ मन्त्र पञ्चाक्षर, जपत मिटत सब कलेश भयंकर । जो नर नारि रटत शिव शिव नित, तिनको शिव अति करत परमहित ।। श्रीकृष्ण तप कीन्हो भारी, है प्रसन्न वर दियो पुरारी । अर्जुन संग लड़े किरात बन, दियो पाशुपात अस्त्र मुदित मन ।।

भक्तन के सब कष्ट निवारे, दे निज भक्ति सबन्हि उद्धारे । शंखचूड जालन्धर मारे, दैत्य असंख्य प्राण हर तारे ।। अन्धक को गणपति पद दीन्हो, शुक्र शुक्रपथ बाहर कीन्हों । तेही सजीवनि बिद्या दीन्हीं, बाणासुर गणपति गति कीन्ही ।।

अष्टमूर्ति पंचानन चिन्मय, द्वादश ज्योति लिंगज्योतिर्मय । भुवन चर्तुदश व्यापक रुपा, अकथ अचिन्त्य असीम अनूपा ।। काशी मरत जन्तु अवलोकी, देत मुक्ति पद करत अशोकी । भक्त भागीरथ की रुचि राखी, जटा बसी गंगा सुर साखी |

रूरू अगस्त्य उपमन्यु ज्ञानी, ऋषि दधीचि आदिक विज्ञानी । शिव रहस्य शिव ज्ञान प्रचारक, शिवहिं परम प्रिय लोकोद्धारक ॥ इनके शुभ सुमिरन तें शंकर, देत मुदित है अति दुर्लभ वर । अति उदार करुणा वरूणालय, हरण दैन्य द्रारिद्रय दुख भय ॥

तुम्हरो भजन परम हितकारी, विप्र शुद्र सब ही अधिकारी। • बालक वृद्ध नारि नर ध्यावहिं, ते अलभ्य शिवपद को पावहिं। 11 भेद शून्य तुम सबके स्वामी, सहज सुहद सेवक अनुगामी । जो जन शरण तुम्हारी आवत, सकल दुरित तत्काल नशावत ।।

दोहा

वहन करो तुम शीलवश, निज जन को सब भार गनौ न अघ अघ जाति कछु, सब विधि करौ संभार ॥ तुम्हरो शील स्वभाव लखि, जो न शरण तव होय। तेहि सम कुटिल कुबुद्धि जन, नहिं कुभाग्य जन कोय दीन हीन अति मलिन मति, मैं अघ ओघ अपार । कृपा अनल प्रकटौ तुरत, करौ पाप सब छार॥ कृपा सुधा बरसाय पुनि, शीतल करौ पवित्र । राखौ पद कमलनि सदा, कुपात्र के मित्र ॥