2025 – दो शब्द सजग भगतों के लिए

श्री गणेशाय नमः श्री रामाय नमः   श्री बालाजी नमः

‘ दो शब्द सजग भगतों के लिए ‘

प्रिय भक्तो,

आज गुरु पूर्णिमा का शुभ दिन है – आज श्री गुरु जी की भव्य मूर्ति की प्रतिष्ठा करते हैं – बिल्कुल उन जैसी – सजीव लगे – निर्जीव नहीं – सप्राण – निष्प्राण नहीं – हाथ उठा कर हमें नित्य आशीष प्रदान करे – मुख से हमें ज्ञान दें – अद्भुत हो ? क्या ऐसी मूर्ति प्रतिष्ठित होना इस जग में सम्भव है – नहीं सर्वथा नहीं । आप यही तो कहेंगे। क्योंकि यह मूर्ति सजीव नहीं है – निर्जीव है – अतएव इसमें कोई चेष्टा हो ऐसा कैसे सम्भव है ? 

सुनिये आदि शंकराचार्य इस विषय में क्या कहते हैं :- 

यह मानव ढाँचा क्या है ? 

यह जो दृश्य जगत है जो दिखाई देता है – उसमें आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी यह पाँच सूक्ष्म भूत हैं और उनके शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध पाँच विषय हैं – जिनके ज्ञान हेतु ही पाँच ज्ञानेन्द्रियों का विकास शरीर में हुआ है – जिससे इन पाँचों का ज्ञान होता है। शब्द के लिए कान – स्पर्श के लिए त्वचा – रूप के लिए आँख – रस के लिए जिह्वा और गन्ध के लिए नाक का विकास हुआ है। इन्हीं पाँच ज्ञानेन्द्रियों से इन पाँच विषयों का ज्ञान होता है तथा हाथ – पाँव – वाणी – गुदा व लिंग यह पाँच कर्मन्द्रियाँ है जिनकी सहायता से यह स्थूल शरीर कर्म करता है। यह सृष्टि ज्ञान व कर्म दोनों से संचालित होती है – अतएव प्रकृति ने इस स्थूल शरीर में दोनों की व्यवस्था की है। मनुष्य का स्थूल शरीर 5 ज्ञानेन्द्रियों 5 कर्मन्द्रियों वाला ही नहीं है – जो रक्त, माँस, अस्थि, मज्जा आदि से बना है – बल्कि उस का संचालन करने वाली और भी अन्य कई शक्तियाँ उसके भीतर वर्तमान हैं। स्थूल शरीर का ज्ञान तो डाक्टरों और वैज्ञानिकों द्वारा हो सकता है – किन्तु इसके भीतर की सूक्ष्म शक्तियों का विवेचन तो अध्यात्म ज्ञान का विषय है। मनुष्य के भीतर यह सूक्ष्म शक्ति अन्तःकरण है – इसके चार मुख्य कार्य हैं –  जिसे कार्यों के अनुसार इस को चार भिन्न – भिन्न नाम दिए गए हैं। 

इसका पहला कार्य है – संकल्प विकल्प करना। विभिन्न प्रकार के ‌अच्छे बुरे विचार इसी से उत्पन्न होते हैं। इसलिए इसको मन कहा जाता है। मन का अर्थ – मनन करने से है – यही गुण मनुष्य में होने से उसे मानव कहा जाता है।

दूसरा – मन में जो संकल्प विकल्प उठ रहे है – विचार उठ रहे है – उसमें कौन सा उपयोगी है – कौन सा अनुपयोगी है – किसको ग्रहण करना है – किसको त्यागना है आदि का निश्चय करने वाले तत्व को बुद्धि कहा जाता है। मन के विचारो पर नियंत्रण करना बुद्धि का ही कार्य है जिससे उन विचारों का सही उपयोग किया जा सके। 

चित्त का तीसरा गुण है कि उसमें ‘ मैं ‘ भाव उत्पन्न होता है – जिससे इस जगत में वह अपने आप को पृथक इकाई अनुभव करने लगता है तथा अपना अस्तित्व स्वतंत्र मानने लगता है – इस वृत्ति को ही अहँकार कहा जाता है। इसी अहँकार के कारण वह अपने को उस परम शक्ति ब्रह्म से भिन्न समझने लगता है। यही मुख्य अज्ञान है जिसके मिटने पर वह स्वयं ब्रह्म रूप हो जाता है। मुक्ति के लिए इस अहँकार का त्याग कर (यों कह लो अपने भिन्न अस्तित्व का त्याग कर) उस परम तत्व के साथ एकत्व स्थापित करना ही मुख्य साधना है।

अन्तःकरण का चौथा गुण है चिन्तन करना। किसी इष्ट पर गहराई से चिन्तन करना चित्त का धर्म है। यह चारों तत्व मिलकर ही अन्तःकरण कहलाता है। सभी कार्यों का इसी से आरम्भ होता है फिर इनके आदेश व निर्देश के अनुसार इन्द्रि‌याँ सक्रिय हो कर कार्यरत होती हैं। इसलिए कर्म के ये ही प्रधान घटक हैं।

इसके आगे बढ़े –

जिस प्रकार एक ही अन्तःकरण – वृत्ति भेद से – मन, बुद्धि, चित्त एवं अहँकार के नाम से चार भेद वाला हो जाता है – उसी प्रकार प्राण तत्व देह के अंगों की सक्रियता बनाए रखने वाला मुख्य तत्व है। यह प्राण तत्व वायु में निहित रहता है – जो शरीर में पाँच स्थानों में पहुंच कर – पाँच स्थानों पर रह कर – पाँच प्रकार के कार्य करता है – जिससे इन कार्यों के आधार पर इसे पाँच प्रकार का कहा जाता है।

इस आन्तरिक वायु को ही ‘ प्राणवायु ‘ कहा जाता है। 

  • उदान वायु – कण्ठ में रहता है – जिसका कार्य वाणी प्रकट करना है।
  • प्राण वायु – कण्ठ और नाभि के मध्य रहता है – जिसका कार्य श्वांस लेना और छोड़ना है।
  • अपान वायु – नाभि और गुदा के मध्य रहता है – जिसका कार्य मल मूत्र का त्याग है। 
  • समान वायु – नाभि केन्द्र में रहता है – जिसका  कार्य प्राण अपान के मध्य सन्तुलन रखना है। 
  • व्यान वायु – सम्पूर्ण देह में व्याप्त रहता है – जिसका कार्य रक्त संचालन है।

यही प्राण वायु जब बाह्य अन्तरिक्ष में रहती है तो वह भी पाँच प्रकार की होती है – नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय । 

  • नाग वायु का कार्य है विस्तार करना ।
  • कूर्म वायु का कार्य है संकोच करना ।
  • कृंकर वायु का कार्य है जम्हाई लेना ।
  • देवदत्त वायु का कार्य है भूख प्यास लगाना । 
  • धनंजय वायु का कार्य है निद्रा व ऊंघ लगाए रखना ।

जिस प्रकार स्वर्ण एवं जल के विभिन्न कार्यो के अनुसार विभिन्न नाम पड़ जाते हैं – उसी प्रकार एक प्राण विभिन्न नामों उसके कार्यो द्वारा से पुकारा जाता है।

जिस स्थूल शरीर का हमने पूर्व में वर्णन किया है – उसके भीतर एक सूक्ष्म शरीर भी होता है जो इन्ही स्थूल तत्वों के सूक्ष्म रूपों से बना होता है।

मृत्यु के समय स्थूल पदार्थों से बना हुआ स्थूल शरीर ही मृत होता है किन्तु इसके सभी सूक्ष्म तत्व जीवित रहते हैं जो शरीर से बाहर निकल कर सूक्ष्म लोकों में प्रवेश करते हैं। यह सूक्ष्म शरीर पाँचो कर्मन्द्रि‌यों – पाँचों ज्ञानेन्द्रि‌यों – पाँचों प्राण – पाँचों सूक्ष्म भूत – मन, बुद्धि, चित्त और अहँकार रूपी अन्तःकरण चतुष्टय के साथ अविद्या, काम एवं कर्म सहित जीवित रहता है – जो समय आने पर पुनः नया स्थूल शरीर धारण करता है। सूक्ष्म तत्वों से बने हुए इस शरीर को सूक्ष्म शरीर कहते है जो पुनर्जन्म धारण करता है। 

इस सूक्ष्म अथवा लिंग शरीर का निर्माण सूक्ष्म भूतों से होता है जो अपंचीकृत होते हैं। किन्तु अहँकार वश इसमें वासना का उद‌य हो जाता है जिससे उसमें भोग वासना उत्पन्न हो जाती है। इसी वासना के कारण वह कर्मफलों का अनुभव करने लगता है। अच्छे बुरे कर्मफलों का अनुभव सूक्ष्म शरीर को ही होता है – स्थूल शरीर को इसका अनुभव नहीं होता। इसलिए मृत्यु के बाद भी यही सूक्ष्म शरीर इनका अनुभव करता हुआ अन्तराल में स्वर्ग नरक की अनुभूति करता है। इस सूक्ष्म शरीर की एक विशेषता होती है कि इसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं होता। यही इसका अज्ञान है – इसका वास्तविक स्वरूप वह शुद्ध चैतन्य आत्मा है जो स्वयं ब्रह्म स्वरूप ही है। किन्तु यह अज्ञान इसका अनादि काल से ही है। इसी कारण इसे ‘ आत्मा ‘ अथवा ‘ जीवात्मा ‘ सम्बोधित किया जाता है। अपने स्वरूप का ज्ञान होने पर इसकी यह उपाधि मिट कर यह शुद्ध चैतन्य ब्रह्म स्वरूप हो जाता है। इसका ब्रह्म से भेद का मुख्य कारण ‘अज्ञान’ मात्र है।

जिस प्रकार स्थूल शरीर की अभिव्यक्ति जाग्रत अवस्था है, उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर की अभिव्यक्ति स्वप्न अवस्था में होती है – जिसमें केवल वही शेष रहता है। स्थूल शरीर की प्रतीति इसमें नहीं होती। स्वप्नावस्था में इसका चैतन्य स्वरूप ही भिन्न-भिन्न दिखाई देने वाले पदार्थो के रूप में दिखाई देता है – जो वास्तव में होते नहीं है पर दिखाई देते हैं। ये इस चैतन्य परात्मा के ही विभिन्न रूप है। स्वप्नावस्था में बुद्धि वासना युक्त एवं कर्त्ता रूप में प्रतीत होती है – जो कर्म जाग्रत अवस्था में किये गए हैं – जाग्रत की वासनाएँ ही स्वप्नावस्था में प्रकट होती है। इस प्रकार स्वप्नावस्था में सूक्ष्म शरीर की क्रियाएँ होती हैं। सूक्ष्म शरीर में चैतन्य आत्मा असंग रहता है – जिससे वह केवल अनुभूति करता है। किन्तु जो कर्म स्वप्नावस्था में बुद्धि द्वारा किये जाते हैं वह केवल जाग्रत में किये गए कर्मों की अनुभूति मात्र है। उसमें लिप्त न होने से स्वप्नावस्था में किये गए कर्मों का वह भोक्ता नहीं होता क्योंकि वह स्वयं कर्म नहीं करता है।

शरीर में स्थित यह चिदात्मा पुरुष अपने सम्पूर्ण कार्य इसी सूक्ष्म शरीर के माध्यम से करता है। बढ़ई के बसोले की तरह यह लिंग शरीर उसका उपकरण मात्र है। इसलिए लिंग शरीर कर्मों का कर्त्ता नहीं होता है – वह कर्मो का माध्यम मात्र होता है।

नेत्रों के सदोष अथवा निर्दोष होने से प्राप्त हुए अन्धापन, धुंधलापन अथवा स्पष्ट देखना आदि नेत्रों का ही धर्म है। इसी प्रकार बहरापन अथवा गूंगापन आदि भी श्रोत्रादि के ही धर्म है – सर्वसाक्षी आत्मा के नहीं। जिन तत्वों से सूक्ष्म शरीर का निर्माण होता है वे तत्व अपने-अपने विशिष्ट धर्मो के अनुसार अपने कर्म करते रहते हैं – ये आत्मा के धर्म नहीं है। वह तो केवल इन सब का साक्षी मात्र है।

यह सूक्ष्म शरीर जिन तत्वों से निर्मित हुआ है उन सभी तत्वों के भिन्न-भिन्न धर्म है जो अपना-अपना कार्य करते रहते है। इन तत्वों में एक तत्व प्राण भी है। शरीर में श्वास लेना व छोड़ना, जम्हाई लेना, छींकना, शरीर कम्पन, उछलना, भूख प्यास का अनुभव होना आदि प्राणों के धर्म है जो शरीर में सन्तुलन बनाये रखते है तथा शरीर की आवश्यकताओं को अनुभव कराते हैं।

सूक्ष्म शरीर में अन्तःकरण का निर्माण सर्वप्रथम होता है – जिसमें एक तत्व अहँकार है। इस तत्व का धर्म है ‘ मैं ‘ पन का अनुभव करना। ‘ मैं हूँ ‘ इनका अनुभव अहँकार के ही कारण होता है। इस तत्व के नष्ट होने पर ‌जीव को अपनेपन का अनुभव नहीं होता। यह अन्तःकरण भी प्रकृति तत्वों द्वारा निर्मित होता है – किन्तु यह चिदाभास के तेज से व्याप्त रहता है जो आत्मा का ही तेज है।

‘ मैं ‘ पन का अनुभव अहँकार के ही कारण होता है। इसी अहँकार के कारण जीव जो भी कर्म करता है उसको वह समझता है कि मैं ही कर रहा हूँ। इसलिए ही स्वयं कर्त्ता हो जाता है, तब कर्मों का कर्त्ता होने के कारण वह कर्मफलों का भोक्ता भी हो जाता है। अहँकार के हटने पर वह कर्मों के कर्त्ता पन एवं भोक्ता पन से मुक्त हो जाता है। वह सभी कर्मों को प्रकृति के गुणों के अनुसार अपने आप हुए मानने लगता है। यही इसकी मुक्तावस्था है।

गीता में कहा गया है – वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, तो भी जिसका अन्तःकरण अहँकार से मोहित हो रहा है – ऐसा अज्ञानी ही ‘ मैं कर्त्ता हूँ ‘ ऐसा मानता है (गीता 3 / 27)। यही अहँकार – तमोगुण से युक्त हो कर जाग्रत – रजोगुण से युक्त हो कर स्वप्न एवं सत्वगुण से युक्त हो कर सुषुप्ति अवस्था का अनुभव करता है।

अध्यात्म में अहँकार के मूल को पाप माना है क्योंकि इसी से मनुष्य में कामनाएँ – वासनाएँ – इच्छाएँ आदि पैदा होती है तथा इनकी पूर्ति के लिए ही वह अनेक पाप कर्म करता है। जिनका फल भी उसे भोगना पड़ता है। जब कोई विषय अथवा कार्य उसकी इच्छाओं वासनाओं को पूर्ण कर देते हैं तो मनुष्य सुखी होता है और न पूर्ण होने पर वह दुःखी होता है। इसलिए सुख दुःख की अनुभूति अहँकार के कारण ही होती है। 

ये अहँकार के धर्म है – जब तक अहँकार है तब तक मनुष्य सुखी – दुःखी होगा ही। इस से मुक्त होने का अन्य कोई उपाय नहीं है। आत्मा नित्यानन्द स्वरूप है – उसे कभी सुख दुःख की अनुभूति नहीं होती है।

जहाँ सुख दुःख की अनुभूति अहँकार के कारण होती है, वहाँ आनन्द की अनुभूति आत्मा के कारण होती है क्योंकि आत्मा स्वतः प्रियतम है – आनन्द स्वरूप है।

आनन्द केवल आत्मा का स्वभाव है – इसलिए उसी को आनन्द की अनुभूति होती है।  

विषय स्वयं आनन्द स्वरूप नहीं है। सुख दुःख की अनुभूति आत्मा का धर्म नहीं है। इसी कारण सुषुप्ति अवस्था में सभी विषयों का अभाव हो जाता है – तो भी आत्मा आनन्द का ही अनुभव करती है। श्रुति कथन इसके प्रमाण है जो प्रत्यक्ष, आगम एवं अनुमान तीनों प्रमाणों से यही सिद्ध करती है कि आनन्द आत्मा का ही स्वभाव है।

चलो सिद्ध हुआ कि इतना कुछ होने पर – मानव का यह संरचनात्मक ढाँचा है – इन के बिना मानव एक मूर्ति है – जिस प्रकार गुरु मूर्ति अथवा कोई भी मूर्ति। इसलिए मूर्ति में वे गुण नहीं आ सकते – क्योंकि वह सजीव नहीं है – वह तो एक स्थिर पदार्थ ही है। किन्तु फिर भी हम उसमें गुरु आत्म भाव का अनुभव करते हुए उसकी पूजा करते हैं।

अब आपने यह जान लिया है कि मानव अहं भाव के कारण ही उस द्वारा किये गए कार्यों का कर्त्ता मानता है। उसी भाव के कारण वह कर्मों से लिप्त होकर अपनी वासनाओं को पूर्ण करता हुआ कर्म फल का भोगता बन जाता है और उन्हीं अच्छे बुरे कर्म फलों को जन्म जन्मांतर तक भोगता रहता है।

यदि आप से पूछा जाए कि आपको कैसा जीवन चाहिए ? तब आपका उत्तर होगा – जीवन में सुख हो, समृद्धि हो – कोई भी मानव इस से परे होना नहीं चाहता – विकसित परिवार हो, कहीं कोई कलेश न हो – ऐसी जीवन की प्रक्रिया सभी चाहते हैं। कोई नहीं चाहता जीवन इसके प्रतिकूल हो।

पर क्या कभी सोचा है आपने – जीवन का उद्देश्य क्या है ? प्रभु ने जीवन क्यों प्रदान किया ? 

जन्म से शिशु, बाल्य, किशोर, तरुण, प्रौढ़ और वृद्ध – यह देह पथ है – उसके उपरान्त मरण – यही तो है जीवन का अगला पड़ाव – यही जीवन नद है – जिसमें जीव अकेला गमन करता है – पर इस यात्रा में भाग्यशाली आत्माएँ वे है जो इस पथ पर चलते हुए पूर्ण जीवन जीती हैं – कई जीव आत्माएँ तो बीच में ही चलते-चलते अदृश्य हो जाती हैं – वस्तुतः इस प्रकार का जीवन – जीवन नहीं है।

इस जीवन में कोई कौतुक नहीं है – ऐसे अधूरे जीवन से कोई लाभ नहीं है – विधाता ने तुम्हें मरने जीने के लिए नहीं पैदा किया। युगो-युगो से तुम बार – बार धरा पर उतरते हो – उद्देश्य हीन जीवन जीते हो – और चले जाते हो। 

आसमान पर उड़ते हुए पंछियो को देखो – कई प्रकार के पक्षी धरा पर आकर दाने चुगते नज़र आएंगे – पक्षी कोई खेती बाड़ी नहीं करते – फिर भी वे अपना पेट भर लेते हैं – जंगलों में रहने वाले पशुओं पर विचार करो – जिनके लिए घास फूस पत्ते प्रभु ने लगा रखे होते हैं – जिनसे उनका जीवन चलता रहता है – उनका अन्य कोई  उद्देश्य नहीं होता – पर मानव जीवन तो इनसे परे हट कर है। पशु खाने के सिवा और कुछ नहीं सोचते – पर इससे हट कर मानव का जीवन अलग होता है। मानव जीवन के उत्थान के लिए – मानव को सद्‌कर्म करने के लिए सभी सनातन ग्रन्थों में कहा गया है – फिर भी कई प्रकार के मानव संसार के पचड़े में फंस कर अनुचित मार्ग पर चल निकलते हैं। उस मार्ग पर चल कर कुछ‌ काल तो वे तृप्त रहते हैं। पर उनका अन्त तो अन्धकारमय होता है, ऐसा प्रायः देखा जाता है। लूट पाट, हिंसक वृत्ति और अत्याचार मानवता के विरुद्ध है – फिर भी मोह माया के चंगुल में फंसे प्राणी कुमार्ग पर चल कर समाज की परिवार की शान्ति तो भंग करते ही है – अपना आने वाला समय या अगला जन्म संकटमय कर लेते हैं।

जैसा करोगे, वैसा ही फल प्राप्त होगा – यह प्रकृति का नियम है। जैसा बर्ताव तुम दूसरों के साथ करते हो, समय आने पर वैसा ही बर्ताव दूसरे तुम से करेंगे। इस लिए शुद्धमार्ग पर शुद्ध नीयत से चलोगे तो नियति तुम्हारा साथ देगी।

कभी कभी देखा जाता है – शुद्ध मार्ग पर चलते हुए कई अवरोध जीवन में आ जाते हैं – वे गत जन्मों के बुरे किए गए कर्मों का ही फल होता है – ऐसा मान कर प्रभु का भजन करते हुए समय निकालना चाहिए। प्रभु का भजन, शुभ मार्ग पर चलने वाले प्राणी को, संबल प्रदान करता है। तब नियति भी तुम्हारा साथ देती रहेगी। प्रकृति का धर्म है – अन्धकार के बाद प्रकाश होना ही होना है। अतएव अन्धकार में प्रभु का संबल – टार्च की रोशनी की तरह होता है। 

ऊपर मैंने मानव देह का वर्णन किया है – उसे बार बार चिन्तन में रख कर – अपने अन्तःकरण को जागृत रखें। किसी भी प्रकार का अंहभाव न रख कर – जीवन को अंह से मुक्त रख कर – सरल जीवन अपनाएँ। 

इसी धरा पर जो भी है – वह सब नष्ट प्रायः है – सब कुछ समय पर नष्ट हो जाता है। इसलिए कहा गया है           ” संसृति सः संसार ” – जो परिवर्तित हो जाना, नष्ट हो जाना है – उसे आवश्यकता से अधिक इकट्ठा कर के कब तक संभालोगे ? जीवन में यदि सुख चाहिए तो लालच का त्याग करो – जितने में गुजारा हो, उतना इकट्ठा करो।

संसार की कोई भी वस्तु सदा सुखमय नहीं होती – अधिक धन सम्पदा वाले प्राणियों को मैंने विभिन्न प्रकार के रोगों से ग्रस्त देखा जिसमें वे अपने शौक की वस्तुएँ भी खा नहीं पाते – तब उन वस्तुओं को एकत्र करके वे क्या करेंगे ? 

इसलिए सौम्य भाव से जीवन व्यतीत करते हुए – सभी प्रकार के अंह का त्याग रखते हुए – जो भी है प्रभु द्वारा प्रदत्त है – मेरा कुछ नहीं है – उसका उसके ही अर्पण का भाव रख कर – स्वतः निष्काम भाव में रह कर – प्रभु के बताए मार्ग पर चलते हुए – गीता रामायण उपनिषदो आदि का अध्ययन मनन करते हुए – सद्‌संगति का अनुगमन करते हुए – भूल से भी कभी अपचिंतन न करते हुए – प्रभु कीर्तन करते हुए – समय बिताइ‌ये। 

आज के लिए इतना ही ! फिर कभी और –

सदैव तुम्हारा,
अमर दास 

श्री गुरु पूर्णिमा – जुलाई 10, 2025 – सिद्धार्थी सम्वत्सर ( विक्रम संवत् 2082 )

2009 – दो शब्द – “ सुप्तात्माओं के लिए “

गुरु पूर्णिमा – 7/7/2009

मेरी विद्यात्मा

सुनो, तुम-जीवन में अगर सोये हुए हो तो अब उठकर बैठ आओ, यदि बैठे हुए हो तो खड़े हो जाओ, यदि खड़े हो तो आगे बढ़ो। पल-पल जीवन कट रहा है, उसके साथ अपने आपको समाप्त न करो, जब तक प्राणों की इति नहीं हो जाती, तब तक पूर्णता के लिए प्रयास करते रहो। क्या तुम समझते हो कि प्राणों की समाप्ति के पश्चात् कुछ भी नहीं रहता, कुछ भी नहीं बचता, तो यह तुम्हारी भूल ही है – क्योंकि तुम केवल एक शरीर नहीं हो, तुम आत्मा हो, यह आत्मा जो निर्दवन्द है, निर्बाध है, जो काल से परे है – जो जीवन और मृत्यु से परे है – उसी के विषय में प्रभु जर्नादन ने श्री भगवद् गीता में कहा है :-

हे अर्जुन – इस आत्मा को शस्त्रादि नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकता। क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य अकलेद्य और अशोषय है, तथा यह आत्मा निःसन्देह नित्य सर्वव्यापक अचल स्थिर रहने वाला और सनातन है। यह आत्मा अव्यक्त अर्थात इन्द्रियों का अविषय और यह आत्मा अचिन्त्य अर्थात मन का अविषय है यह आत्मा विकार रहित अर्थात अपरिवर्तनीय है।

जब तक यह आत्मा तुम्हारे शरीर में विराज रही है – तब तक प्राण स्पन्दन कर रहे हैं और जब इस देह को यह आत्मा त्याग देगी, तब तुम स्व हीन शव मात्र हो जाओगे अर्थात मुर्दा शरीर – सूखी लकड़ी की तरह ठूंठ-फिर उस ठूंठ का जो भी परिणाम हो – वह दूसरे लोग देखेंगें – जानेगे ।

तुम देह नहीं हो, शरीर नहीं हो केवल आत्मा हो, इस जड़ शरीर से बंधे हुए केवल एक शरीर से एक देह से नहीं बार-2 तुम्हारी मृत्यु होती है, फिर जन्म होता है-कभी तुम मनुष्य बनते हो कभी वृक्ष, लता, पात आदि कभी तुम देवता बनते हो, कभी राक्षस, न जाने तुम क्या 2 बनते चले जाते हो – पर क्या कुछ बनना तुम पर निर्भर है नहीं सर्वेश्वर जैसा तुम्हें बनाता है, वैसा तुम बन जाते हो, जैसी निर्देशक ने तुम्हारी योग्यता देखी वैसा अभिनय तुम्हें प्रदान कर दिया – तुम कभी बन्दर, भालू बनकर नाच रहे हो, कभी मदारी बनकर बन्दर भालूओं को नचा रहे हो, पर क्या सर्वेश्वर की इच्छा से ही यह सब हो रहा है! जैसी उसकी इच्छा, वैसा सब तुम कर रहे हो – तब तो जो पाप तुम, अपराध तुम करते हो उसका दण्ड तुम्हें क्यों प्राप्त हो ? जो पुण्य तुम बटोरते हो, उसका फल भी तुम्हें क्यों प्राप्त हो – पर तुम नित्त्य प्रति अपने जीवन में तथा दूसरों के जीवन में देख रहे हो कि कभी निराशा हाथ लगती है, कभी आशा के दीप तुम्हारे जीवन में प्रज्वलित होते हैं तुम कभी दुःखी होते हो, कभी सुखी-ऐसा क्यों है ? अवश्य ही सर्वेश्वर ने तुम्हें जो बुद्धि दी है तन मन और इन्द्रियां दी है वे वैसे ही नहीं दी ये सब तुम्हारा स्वत्व है, तुम्हारा अपना है, उनसे जैसा चाहो तुम आचरण करो अच्छा या बुरा – जब तुम जीवन से लौट कर मृत्यु की गोद में बैठ कर उस सर्वेश्वर के समक्ष या उसके किसी प्रतिनिधि के समक्ष उपस्थित होते हो तो तुम्हारे जीवन में किए गए कर्मों का लेखा जोखा होता है, उसी के अनुसार तुम्हे भावी जीवन प्रदान कर दिया जाता है चाहे वह जन्म मानव का हो या मानवेतर किसी प्राणी का – या लता पात वृक्षादि का। 

इससे सिद्ध होता है, न जाने अब तक तुमने कितने शरीर धारण किए और उनका त्याग किया – क्योंकि तुम एक देह नहीं हो, तुम एक आत्मा हो उस सर्वात्मी का अंश मात्र, सर्वात्मा, सर्वश्वर, परमात्मा, नारायण, विष्णु, शिव – चाहे उसका का कोई भी नाम हो या तुम जिस भी नाम से उसे पुकारो। तुम विनाशी नहीं हो तुम्हारा विनाश सम्भव नहीं है, क्योंकि तुम उस अविनाशी का अंश हो, इसीलिए अविनाशी ही हो जब तुम्हारा देह त्याग होता है तो दूसरे जीवन दूसरी देह में धारण के लिए होता है, समुद्र से उठी वाष्प की तरह, जो बून्द का जीवन धारण कर घरा पर जल रूप में हो, कभी पोखर, तालाब, नद, नदी में परिवर्तित हो, भिन्न-भिन्न रूप धारण करती हुई, बढ़ती चली जाती है – समुद्र की जल तरंग को बाष्प बनने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता, वही वाष्प वृन्द में, जल से, पोस्वर-नद-नदी में परिवर्तित होत्ती चली जाती है। क्या उसे इसके लिए कोई प्रयास करना पड़ता है – नहीं – नहीं तो। उस सर्वेश्वर ने जो अज्ञात है जिसे कोई देख नहीं पाती उसकी गति को जैसे निश्चित किया वैसा स्वतः होता गया।

तो तुम्हारे लिए जो उसने निश्चित किया क्या तुम उसमें संतुष्ट होते हो सुख-दुःख, हानि-लाभ, दैन्य-कलेश जो तुमहारे लिए उसने निर्धारित किए क्या तुम उससे सन्तोष प्राप्त करते हो विचारों और तुम पाओगे कि तुम उस सब से संतुष्ट नहीं होते हो कुछ न कुछ कमी उस विधाता की तुम निकाल ही देते हो – दुःख में भी, सुख में भी जब अन्य जीवधारी मनुष्येतर प्राणी सब कुछ सहते हैं, भोगते हैं, तो तुम्हारे में ही अभाव क्यों दिखाई पड़ता है – उसका एक बड़ा कारण है मनुष्येतर प्राणियों में वह एक चीज जो तुम में है उनमें नहीं है, अगर हे भी तो भी वैसी प्रवर नहीं है जैसी तुम्हारी। वह चीज है तुम्हारा मन जिसके कारण तुम सन्तुष्ट नहीं होते हो- तुम्हारा आत्म पांच कोशो पर टिका हुआ है वह पाच कोश हैं-

  1. अन्नमय कोश – तुम्हारा शरीर जो दिखाई देता है।
  2. प्राणमय कोश – तुम्हारे प्राण जो धड़कते हैं।
  3. मनोमय कोश – तुम्हारा मन जो कहीं टिकता नहीं।
  4. विज्ञान मय कोश – तुम्हारी बुद्धि जिस पर तुम्हारा अंहकार जीवित रहता है।
  5. आनन्दमय कोश – तुम्हारी आत्मा जिससे तुम दूर रहते हो। 

केवल मन की चंचलता को अगर तुम जीत सको विजय प्राप्त कर सको – तो वह क्या है  जिसे तुम प्राप्त नहीं कर पाओगे – इसीलिए आगे बढ़ो मन के घोड़े को नुकेल से संयमित करो और अपने मार्ग पर चल निकलो जिस पर तुम्हें चलना है पर तुम्हास लक्ष्य क्या है उसे तुम पहले जान लो –

तुम्हारा लक्ष्य है उस बिन्दु से मिलना जिससे तुम जुदा हुए हो – एक मार्ग पर भटके प्राणी की तरह तुम्हे अपना मार्ग तलाशना है अपने गंतव्य की ओर बढ़ना है –

अपने स्वामी से बिछुड़ा हुआ भटका हुआ, भूला हुआ एक श्वान भी अपने स्वामी की तलाश करता-करता उसे खोज ही लेता है अपने रेवड से बिछुड़ा हुआ जानवर भी जब तक उसमें मिल नहीं जाता तो उसकी उद्विग्नता उसकी विह्वलता करुणामय ही होती है तब तुम में वह विह्वलता वह वैचेनी क्यों नहीं है – जानते हो इसका कारण ?

इसका कारण है – तुम उस बकरे की तरह हो जिसे व्याध ने सिंह का शिकार करने के लिए एक हरी भरी झाड़ी से बांध दिया है हरी भरी झाड़ी चरता हुआ वह भूल ही गया है कि वह बंधा हुआ है और निपट निर्जन प्रदेश में सिंह का शिकार होने के लिए उसे छोड़ दिया गया है।

क्या तुम्हारी स्थित्ति सर्वथा वैसी ही नहीं है – इस संसार ने हरी भरी झाड़ी की तरह, जिसे तुम चर रहे हो तुम्हारे अपने मृत्यु बोध को भुला दिया है पर कभी न कभी जीवन में जब तुम्हारा स्व जागता है तो तुम्हें मृत्यु का आभास तो होता ही होगा ?

लेकिन मृत्यु का भय तुम्हें क्यों होगा – दरअसल तो तुम्हें जीवन जाने का भय होता होगा – मृत्यु से तुम क्यों डरोगे – पर मृत्यु ध्रुव है, निश्चित है, तब जन्म पुर्वजन्म भी ध्रुव सत्य है।

इसीलिए कहता हूं कि अपने समय को पलों को क्षणों को क्यों नष्ट कर रहे हो बैठो उठो और आगे बढ़ो अपने मार्ग को ध्यान में रखो अपने गंतव्य पर पहुंचने के लिए उद्धत हो जाओ। न देखो दूसरों की तरफ कि सामने वाला उठेगा तो में भी उठूंगा। वह चलेगा तो उसके साथ में भी चलेगा – याद रखो जो पल तुम्हारा है वह बस तुम्हारे लिए ही है।

बस आज के लिए इतना ही।

गुरु पूर्णिमा जुलाई 7, 2009

सदैव ही तुम्हारा
अमर दास

अनन्तशायी शयन स्तुति

अनन्तशायी शयन स्तुति

हे सर्वेश्वर – हे परमेश्वर, पदमनाभं अन्तरयामी

जगती तल के तम को समेटो,  आनन्द से फिर सोओ स्वामी

जगत अन्धेरा तम भारी है,  तुम बिन कौन मिटाएगा

अपने शयन में इसे समेटो, जग रोशन हो जाएगा – 2

निद्रा तुम्हारी एक बहाना, सोते ब्रह्माण्ड सजाने को

कण – कण में तुम बसे हो स्वामी, करते ऐसे बहाने हो

सच मुच सबको निद्रा सताये, माया मोह में सब भरमाए

हमारी निद्रा हर लो स्वामी, हे परमेश्वर जग के स्वामि – 2

प्रभु फिर तुम चैन से सोना, रैन भई मूंदो अब नयना

चैन से सोवो मेरे स्वामि, पदमनाभम् आनंद  स्वामि – 2

ॐ पद्मनाभाय नमः7.  ॐ केशवाय नमः
ॐ लक्ष्मीकान्ताय नमः8.  ॐ माधवाय नमः
ॐ अनन्तशायिने नमः9.  ॐ अच्युताय नमः 
ॐ वासुदेवाय नमः10.  ॐ चक्रधराय नमः
ॐ हरये नमः11.   ॐ गदाधराय नमः
ॐ जगतपालकाय नमः12.  ॐ हिरण्यगर्भाय नमः

पर्व : श्री विष्णु शयनोत्सव ( हरिशयनी एकादशी )

रविवार, 6 जुलाई 2025

महादेव शयन स्तुति

महादेव शयन स्तुति 

सोवो सोवो शिव अन्तरयामी – शयन रात्रि छा रही।

आँखों में निद्रा है छाई – गंगा थमती  जा रही।

नागों का भूषण अब त्यागो , आक धतूरा चबाओ तुम ,

खीर का भोग लगाओ स्वामि , अब योगा सन त्यागो तुम।

भूत आदि गण सेवते सेवते , थक गए प्यारे शिव शंकर ,

अभयवर प्रदान करो , सो जाओ हे प्रलयंकर।

निद्रा का अब नर्तन होगा , तारे अलख जगाएगे , 

भाल चंद्र अस्ताचल जाकर , चैन से डमरू बजाएंगे।

स्थिर सदा रहते हो स्वामि – सदा योग निरत रहते ,

अब निद्रा अपनाओ स्वामी , श्री हरि विनती करते।

भोले नाथ विश्व के स्वामि , अब निद्रा को अपनाओ,

माता उमा निहारे तुमको , अब निद्रा में खो जाओ।

सोते सोते वर दो स्वामी , सदा तुम्हारा ध्यान धरें ,

निश्चय बुद्धि जप तप करते , तब चरणों में निरत रहें।

पर्व : श्री गुरु पूर्णिमा एवं श्री महादेव शयनोत्सव 

गुरुवार, 10 जुलाई 2025

राम राम की रटन लगा ले

राम राम की रटन लगा ले
न कोई बन्धू – न सुत दारा
न शत्रु को – न को प्यारा
जीवन तो समता से वीते
न तो घट रह जाए रीते
लोभ मोह दानव भयंकर
काम क्रोध घट बैठे छिप कर
धक्का दो तो भी न निकसे
ये चारों डरते हैं तप से
नाम जपो निसदिन हरिहर का
जीवन में तब रहे न खटका
साँस साँस में नाम रमा ले
प्रभु मन में तू जगह बना ले
पंचतत्त्व की तेरी काया
नाशवान सब प्रभु की माया
उस माया को दूर भगा ले
राम राम की रटन लगा ले
जय सिया राम – 5
शनिवार , 15 मार्च 2025

राधे श्याम राधे श्याम राधे श्याम

राधे श्याम राधे श्याम राधे श्याम
श्याम श्याम गाओ रे
राधे श्याम गाओ रे
पल पल ले लो श्याम का नाम – 2

गोविन्द हैं वे गोपाल हैं वे
वही हैं राधे श्याम
मिल जुल बोलो राधे श्याम

राधे श्याम राधे श्याम राधे श्याम
राधे श्याम राधे श्याम राधे श्याम
(निरन्तर)

शनिवार , 15 मार्च 2025

श्याम तुम बिन न कोई चैना

श्याम तुम बिन न कोई चैना

होली आई श्याम – पर तुम न आए

ढूँढू तुमको कहाँ – कहाँ  – 2 

मुझ से विरह सहा न जाए  – 2 

श्याम आए नहीं क्यों न आए  – 2 

छलका आँखों से नीर 

मन में न कोई धीर 

बहता अविरल है नीर – तुम न आए 

श्याम आए नहीं क्यों न आए

राह तकूँ रोय रोय  – श्याम आओ 

होली खेलो संग संग रिझाओ 

थम रहा न नयना नीर 

सूना सूना लगे यमुना तीर 

छाया कदम्ब  की भरमा रही है 

आँसू विरह के टपका रही है 

तुम बिन न पाए न कोई चैना 

श्याम सुनलो विरह के वैना

श्याम तुम बिन न कोई चैना  – 5

शनिवार , 15 मार्च 2025

देव प्रबोधिनी एकादशी भजन

जागृहि जागृहि हे नारायण
अनन्तशायी पदमनाभम्
चिर से श्यन मुद्रा में हो तुम
जगती विकल भई प्रभु तुम बिन
हे नारायण जय नारायण

जागृहि जागृहि हे नारायण

हरो जगत का प्रभु अन्धियारा
तुम बिन दीखे न कोई सहारा
हे माधव हे गोविन्द जागो
हे वेकंटेश अब निद्रा त्यागो
हे नारायण जय नारायण

जागृहि जागृहि हे नारायण

हे नृसिंह हे विश्व विधाता
हे केशव हे जगती त्राता
वासुदेव हे लक्ष्मी स्वामि
विनय करें अब जागो स्वामि
हे नारायण जय नारायण

जागृहि जागृहि हे नारायण

अण्डाल के स्वामि जागो
भू पति जागो श्री पति जागो
शिव प्रिय जागो ब्रह्मा प्रिय जागो
भृगु अंश ज‌गावे निद्रा त्यागो
हे नारायण जय नारायण

जागृहि जागृहि हे नारायण

कालातीत भृगु तुम्हें निहारे
शैया त्यागो सब जन प्यारे
उमा विकल भई दरसन को
नारद तरस गए नर्तन को

हे नारायण जय नारायण
जागृहि जागृहि हे नारायण

वीणा के स्वर झंकृत करते
देव दानव सब स्तुति करते
जय नारायण हे नारायण
जागृहि जागृहि जय नारायण
हे नारायण हे नारायण

जागृहि जागृहि जय नारायण

शिव का डमरु बज रहा स्वामि
शंख ध्वनि सुनो अन्तरयामी
घण्टे व घडियाल बज रहे
गन्धर्व आदि नर्तन कर रहे
हे नारायण जय नारायण

जागृहि जागृहि हे नारायण

जागो नाथ अब नयन उघारो
दीनबन्धु अब भयो उजियारो
भगत गणों के आरत टारो
दीनानाथ सब को उद्धारो
हे नारायण जय नारायण

जागृहि जागृहि हे नारायण

हे नारायण हे सर्वेश्वर
जागो जागो नाथ दयाकर
परमेश्वर तुम अन्तरयामी
दूर करो दुःख लक्ष्मी स्वामि
हे नारायण हे नारायण

जागृहि जागृहि हे नारायण

जय गुरुदेव – श्री गुरु वन्दना

जय गुरुदेव, जय गुरुदेव, जय गुरुदेव, जय जय गुरुदेव

गुरु हैं गंगा, गुरु हैं जमुना, गुरु सरस्वति धारा,
ज्ञान के सागर गुरु हमारे, जगती का उजियारा,
जय गुरुदेव – जय जय गुरुदेव

गुरु हंस हैं, गुरु गरुड़ हैं, गुरु मोर मतवाले,
ज्ञान दे सब को रोशन करते, सबके हैं रखवाले,
जय गुरुदेव – जय जय गुरुदेव

बरगद की छाया से शीतल, आम्र फल से मीठे,
समभाव दृष्टा होकर, वचन सुनावे तीखे,
जय गुरुदेव – जय जय गुरुदेव

हृदय मल कब दूर कर दिया, कोई जान न पाता,
रक्षा सबकी करते निश्दिन, रहें सदा अज्ञाता,
जय गुरुदेव – जय जय गुरुदेव

कृपा गुरु की जो कोई पावे, परमहंस बन जावे,
सब द्वन्दों से मन हो निर्मल, भक्ति मुक्ति पावे,
जय गुरुदेव – जय जय गुरुदेव

सदा ही आपका
अमर दास

भृगुवार , 12 जुलाई 2024
श्री त्रिमूर्तिधाम पञ्चतीर्थ आश्रम दिव्य देशम् 107

अनन्त श्यन भजन

सोइये हे अनन्त अब, निशा छा रही,
मंयक नभ में दिख रहे, प्रभा है जा रही।
पक्षियों का शोर अब, सुना न जा रहा,
वायु वेग थम गया, अन्धेरा छा रहा।

श्यन की रात हे प्रभु – पल पल है छा रही,
विश्राम अब करो प्रभु, निद्रा बुला रही।
सोवो नाथ निद्रा में, अब आँखे मूंद लो,
तन मन को दो विश्राम, विनय एक ये सुन लो।

हम को विसारना नहीं, सहारे तुम्हारे हैं,
हृदय में अपने रखना, सेवक तुम्हारे हैं।
खो जाओ अब निद्रा में, है रात बीतती,
प्रिया तुम्हारी देख रही, थकित चकित सी।

प्रभु का श्यनदिन

श्यन करो प्रभु, प्रेम से हुई तुम्हारी रात,
तब तक सपनों में खो जाओ, जब तक न हो प्रभात।

हे माधव, हे नृ‌सिंह स्वामि,
पदमनाभम् अन्तरयामी।
जगती तल के, तम को समेटो,
अनन्त स्वामि चैन से लेटो।

सो ओ नाथ, अब नयन मूँद लो,
शान्त हो लेटो, शुभ स्वप्न लो।
आनन्द कानन, लक्ष्मी स्वामि,
धीर चित्त हो, सो ओ स्वामि।

सोते सोते कृपा करना,
हम भक्तों को न विस्मरणा।
थकित चकित् निहारेंगे स्वामि,
कृपा रखना अन्तरयामी।

अपने हृदय से हमे लगाकर,
चित्त अपने में हमे बसाकर।
याद विस्मृति में भी करना,
अंश तुम्हारे न विस्मरणा।

आरती श्री सीता जी की

आरती जनक दुलारी की – शोभामय सीता प्यारी की।
विद्यादात्री जगत विधात्री
चन्द्र वदना – सुखकारी – माता चन्द्रवदना ०
मनोरमा जय चक्रहस्ता
जय भयहारी की – । १ । आरती ०

शोभा सिन्धु सुसौम्या माँ
दया करो अघहारी – माता दया करो ०
अति आनन्दा परम सुगन्धा
जय जयकारी की – । २ । आरती ०

सदा शुभकारी अति हितकारी
आये शरण तिहारी – माता आये शरण ०
क्रियावती सुकुमारी जय जय
भव भञ्जनहारी की – । ३ । आरती ०

भक्ति मुक्ति की दात्री रम्या
सदा – सदा जयकारी – माता सदा सदा ०
परम मनोरमा कञ्चन वदना
सीता प्यारी की – । ४ । आरती ०

सरल स्वरूपा भगवद् रूपा
जाऊँ मैं बलिहारी – माता जाऊँ मैं ०
हाथ जोड़ सदा करो आरती
सीता सन्नारी की – । ५ । आरती ०

श्री राम जी के 108 नाम

1. ॐ श्री रामाय नमः

2. ॐ राम भद्राय नमः

3.  ॐ राम चन्द्राय नमः

4. ॐ रघु राजाय नमः

5. ॐ रघुपतये नमः

6. ॐ रघु वीराय नमः

7.  ॐ रघुकुल भूषणाय नमः

8.   ॐ राजीव लोचनाय नमः

9.  ॐ राघवाय नमः

10. ॐ रघुत्तमाय नमः

11. ॐ रक्ष कुल निहन्ताय नमः

12. ॐ रघु पुङ्गवाय नमः

13. ॐ आत्मवते नमः

14. ॐ अपरिच्छेदाय नमः

15. ॐ अनसूयकाय नमः

16. ॐ अकल्मषाय नमः

17. ॐ अघनाशनाय नमः

18. ॐ आदि पुरुषाय नमः

19. ॐ अध्यात्मयोग निलयाय नमः 

20. ॐ अरिहन्ताय नमः

21. ॐ असुर मर्दनाय नमः

22. ॐ असुर निकन्दनाय नमः

23. ॐ आनन्दाय नमः

24. ॐ आनन्ददाय नमः

25. ॐ कौशलेयाय नमः

26. ॐ कौशल्या नन्दनाय नमः

27. ॐ कोदण्डिने नमः

28. ॐ कान्ताय नमः

29. ॐ कवये नमः

30. ॐ कपि पूज्याय नमः

31. ॐ कीर्तने नमः

32. ॐ कल्याणमूर्तये नमः

33. ॐ केशवाय नमः

34. ॐ कल्याण प्रकृतये नमः

35. ॐ कामदाय नमः

36. ॐ कर्त्रे नमः

37. ॐ खड्गधराय नमः

38. ॐ खरध्वंसिने नमः

39. ॐ गुण सम्पन्नाय नमः

40. ॐ गोविन्दाय नमः

41. ॐ गोपवल्लभाय नमः

42. ॐ गरुड़ध्वजाय नमः

43. ॐ गोपतये नमः

44. ॐ गोप्त्रे नमः

45. ॐ गभीरात्मने नमः

46. ॐ ग्रामण्ये नमः

47. ॐ गुण निधये नमः

48. ॐ गोपाल रूपाय नमः

49. ॐ गुण सागराय नमः

50. ॐ गुण ग्राहिणे नमः

51. ॐ गोचराय नमः

52. ॐ गुणाकराय नमः

53. ॐ गुण श्रेष्ठाय नमः

54. ॐ गुरवे नमः

55. ॐ चक्रिणे नमः

56. ॐ चण्डांशवे नमः

57. ॐ चाणूरमर्दनाय नमः

58. ॐ चिद् रूपाय नमः

59. ॐ चण्डाय नमः

60. ॐ चतुर्वर्गफलाय नमः

61. ॐ जितारये नमः

62. ॐ जयिने नमः

63. ॐ जीवानां वराय नमः

64. ॐ ज्योतिष्मते नमः

65. ॐ जिष्णवे नमः

66. ॐ जनार्दनाय नमः

67. ॐ जगत्भर्त्रे नमः

68. ॐ जगत्कर्त्रे नमः

69. ॐ जगतां पतये नमः

70. ॐ जगत्धारिणे नमः

71. ॐ जगदीशाय नमः

72. ॐ जगत पालन हाराय नमः

73. ॐ जानकी वल्लभाय नमः

74. ॐ जित क्रोधाय नमः

75. ॐ जितारातये नमः

76. ॐ जगन्नाथाय नमः

77. ॐ जटायु प्रीति वर्धनाय नमः

78. ॐ जगत ताराय नमः

79. ॐ तत्त्वज्ञाय नमः

80. ॐ तत्त्व वादिने नमः

81. ॐ तत्व स्वरूपिणे नमः

82. ॐ तपस्विने नमः

83. ॐ ताटकान्तकाय नमः

84. ॐ तपनाय नमः

85. ॐ तपोवासाय नमः

86. ॐ तमसश्छेत्त्रे नमः

87. ॐ तत्वात्मने नमः

88. ॐ ताराकाय नमः

89. ॐ दान्ताय नमः

90. ॐ दृढ़ प्रज्ञाय नमः

91. ॐ दृढ़ाय नमः

92. ॐ दया कराय नमः

93. ॐ दुरा सदाय नमः

94. ॐ दात्रे नमः

95. ॐ दुर्ज्ञेयाय नमः

96. ॐ देव चूडामणये नमः

97.  ॐ दिव्याय नमः

98.  ॐ धनुर्वेदाय नमः

99.  ॐ धराधराय नमः

100. ॐ ध्रवाय नमः

101. ॐ ब्रह्मणे नमः

102. ॐ बलिने नमः

103. ॐ वामनाय नमः

104. ॐ विधात्रे नमः

105. ॐ विष्णवे नमः

106. ॐ विश्व योनये नमः

107. ॐ वेद वित्तमाय नमः

108. ॐ श्री त्रिमूर्तिधाम वासिने नमः

मर्यादा पुरुषोत्तम राम जी – जिनके नाम रस का पान नित्य उमापति शिव करते हैं – श्री हनुमान जी जिनकी सेवा में सदैव संलिप्त हैं – देवर्षि नारद जी ने जिस रसीले आनन्ददायी ‘ राम ‘ नाम पर अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया – उन्हीं के पावन अष्टोत्तरशत नाम का ध्यान पूजन जप व हवन आप करेंगें – तब आपको सब कुछ प्राप्त होगा – जो आपको चाहिये होगा। 

अमरदास

श्री त्रिमूर्तिधाम पञ्चतीर्थ आश्रम, कालका – 133302

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हनुमान चालीसा अर्थ सहित

(यह चालीसा सूर्यास्त के समय पढ़ने का अधिक महत्व है।)

दोहा

श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि । बरनउँ रघुवर विमल जसु, जो दायकु फल चारि ।

श्री गुरु जी के चरण कमलों की रज (धूल) से अपने मन दर्पण को साफ करके में श्री रघुनाथ जी के निर्मल का वर्णन करता हूँ। जो चारों फलों (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) को देने वाला है।

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार | बल बुद्धि विद्या देहु मोहि हरहु कलेस विकार |

मैं अपने आप को बुद्धिहीन जानको श्री पवन कुमार हनुमान जी का स्मरण करता हूँ। हे पवन कुमार जी ! आप मुझे बल बुद्धि विद्या प्रदान करें तथा मेरे सभी क्लेशों और दोषों को मिटा दे

चौपाई

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर, जय कपीश तिहुँ लोक उजागर ॥१॥

ज्ञान तथा सभी गुणों के सागर श्री हनुमान जी आपकी जय हो । तीनो लोक आपकी कीर्ति से दीप्त हो रहे हैं, हे कपिराज आपकी जय हो।

राम दूत अतुलित बलधामा, अंजनि पुत्र पवन सुत नामा ॥२॥

हे रामदूत आप अपार बल के भण्डार हैं, आप अंजनि माता के पुत्र हैं और पवन सुत आप का नाम है ।

महावीर विक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी |३|

हे परम वीर हनुमान जी आप वज्र के समान अंगों वाले, दुष्ट बुद्धि का निवारण कर अच्छी मति प्रदान करने वाले संगी हैं ।

कंचन वरन विराज सुवेसा, कानन कुंडल कुंचित केसा ॥४॥

श्री हनुमान जी की देह स्वर्ण सदृश रंग वाली है। उनका सुन्दर वेष है, कानों में कुंडल पहने हुए हैं तथा उनके बाल घुंघराले हैं ।

हाथ बज्र औ ध्वजा विराजे, काँधे मूँज जनेऊसाजै | ५ ||

श्री हनुमान जी के हाथों में वज और ध्वजा सुशोभित है, कधे पर मूज का यज्ञोपवीत शोभा पा रहा है ।

संकर सुवन केसरी नन्दन, तेज प्रताप महा जग बंदन |६|

हे शंकर के अवतार केसरी नन्दनः आपके महान यश और पराक्रम के कारण आपको सम्पूर्ण जगत वंदन करता है।

बिद्यावान गुनी अति चातुर, राम काज करिबे को आतुर ॥७॥

हे हनुमान जी! आप परम विद्वान गुणवान तथा अत्यन्त कार्य कुशल हैं। श्री राम जी के कार्य करने हेतु सदैव उत्साहयुक्त रहते हैं

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया, राम लखन सीता मन बसिया |८|

श्री राम प्रभु के चरित्र गाथायें सुनने से आपको बड़ा आनन्द प्राप्त होता है । श्री राम जी श्री लखन जी एवम् श्री सीता जी सदैव आपके हृदय में निवास करते हैं ।

सूक्ष्म रूप धरि सियहि दिखावा, बिकट रूप धरि लंक जरावा । ९ ।

श्री हनुमान जी छोटा सा रूप धर कर (अशोक वन में) श्री सीता जी के सम्मुख गये, बाद में उन्होंने विकराल देह धारण करके लंका जलाई।

भीम रूप धरि असुर संहारे, रामचन्द्र के काज सँवारे |१०|

आपने विकराल रूप धारण कर असुरों का संहार किया तथा श्री रामचन्द्र के समस्त कार्यों को सम्पादित किया ।

लाय सजीवन लखन जियाये, श्री रघुवीर हरषि उर लाये |११|

संजीवनी बूटी लाकर श्री लक्ष्मण जी को जब जीवित किया तो भगवान श्री राम ने हर्षित हो आपको (श्री हनुमान जी का) हृदय से लगाया ।

रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई, तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई | १२ |

श्री राम जी ने आपका बहुत मान बढ़ाया और कहा कि तुम मुझे भैया भरत जी के समान प्रिय हो ।

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं, अस कहि श्री पति कंठ लगावैं ॥१३॥

सहस्त्रों मुख वाले इन्द्र भी तुम्हारे यश का गान करते हैं ऐसा कह कर श्री सीता पति श्री राम चन्द्र जी आपको गले से लगाते हैं।

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा, नारद सारद सहित अहीसा ॥१४॥

श्री ब्रह्मा जी, नारद जी, श्री सरस्वती जी, श्री शेष जी तथा सनकादिक मुनि जन भी श्री हनुमान जी आपके के यश का ठीक ठीक वर्णन नहीं कर सकते ।

जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते, कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते ॥१५॥

जब श्री हनुमान जी की महिमा श्री यमराज कुबेर जी व दस दिक्पाल भी पूर्ण रूप से कह नहीं सकते तो धरा के कवि और विद्वान भला कहाँ से कह पायेंगे ।

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा, राम मिलाय राजपद दीन्हा ॥१६॥

आपने सुग्रीव जी पर बहुत उपकार किया उनको श्री राम जी से मिला कर उन्हें राजपद दिलवाया ।

तुम्हरो मन्त्र विभीषण माना, लंकेश्वर भए सब जग जाना ॥१७॥

तुम्हारी सम्मति विभीषण ने मान ली थी इसीलिए वह भी लंका के राजा बन गए थे। इस बात को सारा संसार जानता है ।

जुग सहस्त्र जोजन पर भानू, लील्यो ताहि मधुर फल जानू ॥१८॥

जो सूर्य सहस्त्रों योजन की दूरी पर है उसे भी आपने (बचपन में) मीठा फल समझ कर मुख में रख लिया था ।

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही, जलधि लाँघि गये अचरज नाही ॥१९॥

प्रभु जी की निशानी अंगूठी मुँह में रख कर आपने समुद्र पार कर लिया इसमें हैरानी की बात नहीं है ।

दुर्गम काज जगत के जेते, सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ॥२०॥

संसार के चाहे जितने भी कठिन काम हों, हे हनुमान जी आपकी कृपा से वह सब के सब सहज ही में हो जाते हैं ।

राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसारे |२१|

हे श्री हनुमान जी ! श्री राम जी के आप द्वारपाल हैं आपकी आज्ञा के बिना किसी का भी प्रवेश उनके दरबार में नहीं हो सकता ।

सब सुख लहै तुम्हारी सरना, तुम रच्छक काहू को डरना । २२ ।

हे श्री हनुमान जी आप की शरण में जो आता है उसे सभी प्रकार का आनन्द मिल जाता है आप जिसके रक्षक हों उसे किसी का डर नहीं रहता

आपन तेज सम्हारो आपै, तीनों लोक हाँक तें काँपै । २३

हे श्री हनुमान जी ! अपने तेज को आप स्वयं ही सभाल सकते हैं। आपकी जोरदार आवाज (हॉक) सुन कर तीनों ही लोक कांपने लगते हैं

भूत पिशाच निकट नहिं आवै, महावीर जब नाम सुनावै ॥ २४ ॥

श्री महावीर जी का नाम पुकारते ही भूत पिशाच भाग जाते हैं पास नहीं फटकते।

नासै रोग हरै सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत वीरा ॥२५॥

श्री महावीर हनुमान जी का सतत नाम जप करने से सभी प्रकार के रोग और पीडायें नष्ट हो जाती हैं ।

संकट तें हनुमान छुड़ावे, मन क्रम वचन ध्यान जो लावै ॥२६ |

आपका ध्यान जो मन वचन और कर्म से करते हैं, उनको आप सभी विपत्तियों से उबार लेते हैं ।

सब पर राम तपस्वी राजा, तिन के काज सकल तुम साजा । २७ ।

तपस्वी राजा राम सबसे श्रेष्ठ हैं, उनके भी सब काम आपने ही परिपूर्ण किए हैं ।

और मनोरथ जो कोई लावै, सोई अमित जीवन फल पावै |२८|

जो जो भी कोई मनोकामना लेकर आपके पास आता है, सौ (वह) ही जीवन में मनोवळ्छा फल पा जाता है ।

चारों जुग परताप तुम्हारा है परसिद्ध जगत उजियारा |२९|

हे श्री हनुमान जी ! सतयुग द्वापर त्रेता तथा कलयुग आदि चारों युगों में आपका प्रताप प्रसिद्ध है ही समस्त जगत में आपका सुयश भी सर्वत्र प्रकाशमान है ।

साधु संत के तुम रखवारे, असुर निकंदन राम दुलारे ॥३०।

आप साधु सन्तों के रक्षक हैं तथा असुरों का संहार करने वाले हैं । श्री राम जी के अत्यन्त प्रिय हैं ।

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता, अस वर दीन जानकी माता |३१|

सीता माता ने आपको वरदान दिया था कि जिसे भी आप चाहें उसे आप आठों प्रकार की सिद्धियाँ और नौओ प्रकार की निधियाँ प्रदान कर सकते हैं।

राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा ॥३२॥

राम नाम की रसायन तुम्हारे पास है तुम सदा ही रघुनाथ जी की सेवा के लिए तत्पर रहते हो ।

तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै ।३३।

तुम्हारा भजन करने से श्री राम जी सहज में प्राप्त हो जाते हैं और जन्म जन्मान्तर के दुःख सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं ।

अंत काल रघुवर पुर जाई, जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई |३४|

मृत्यु के पश्चात् वह भक्त श्री राम जी के (साकेत) धाम में चला जाता है।

यदि जन्म प्राप्त करे तो वह हरि की भक्ति प्राप्त कर लेता है।

और देवता चित्त न धरई, हनुमत सेई सर्व सुख करई |३५|

हनुमान जी की भक्ति करने से वे सब सुख प्राप्त हो जाते हैं, दूसरे देवता जिनके बारे में सोच भी नहीं सकते ।

संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा |३६ |

जो श्री हनुमान जी के महावीर रूप का स्मरण करते हैं उन के सभी कष्ट और पीडायें समाप्त हो जाती हैं ।

जै जै जै हनुमान गोसाई, कृपा करहु गुरू देव की नाई |३७ |

हे श्री हनुमान जी ! आपकी जय हो जय हो जय हो! आप मुझ पर कृपालु गुरू की तरह कृपा करें ।

जो सत बार पाठ कर कोई, छुटहि बंदि महासुख होई |३८|

जो कोई इस हनुमान चालीसा का शत बार (सौ बार) नित्य प्रति पाठ करेगा उसके सब बन्धन छूट जायेंगे और वह परमानन्द की प्राप्ति कर लेगा ।

जो यह पढ़े हनुमान चालीसा, होय सिद्धि साखी गौरीसा ।३९ ।

जो भक्त इस श्री हनुमान चालीसा का नियम पूर्वक पाठ करेगा उसको निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी इसके साक्षी साक्षात् शंकर जी हैं

तुलसी दास सदा हरि चेरा, कीजै नाथ हृदय महँ डेरा |४०|

श्री तुलसी दास जी कहते हैं, हे श्री हनुमान जी ! मैं तो सदैव आपका सेवक हूँ। अत: हे नाथ मेरे हृदय में निवास करें ।

दोहा

पवन तनय संकट हरण, मंगल मूरति रूप । राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप ।।

हे पवन कुमार आप संकटों को हरने वाले तथा मँगल मूर्ति हैं आप श्री राम जी लक्षमण जी तथा श्री सीता जी सहित हमारे हृदय में निवास करें ।

भृगु स्तोत्र अर्थ सहित

महर्षि भृगु ब्रह्मा जी के मानसपुत्र दैत्य गुरु शुक्राचार्य के यशस्वी पिता त्रिकालदर्शी लोक सन्तापहारी “महर्षीणां भृगुरहम” इस गीता वचन के अनुसार भगवान की दिव्य विभूति हैं, यह स्तोत्र भक्तों के प्रति उनकी कृपा प्राप्ति में परम सहायक सिद्ध होगा ।

(१) आदि देव ! नमस्तुभ्यं प्रसीदमे श्रेयस्कर || पुरुषाय नमस्तुभ्यं शुभ्रकेशाय ते नमः ||१||

अर्थ :- ब्रह्मा जी के मानस पुत्र मरिच्यादि नौ ब्रह्म सृष्टि के आदि देव हैं, उन्हीं में भृगु जी भी एक हैं, अतः हे आदि देव भृगु जी ! में आपका भक्त आपको नमस्कार करता हूं। हे सभी का कल्याण करने वाले भृगुदेव ! मेरे कल्याण के लिए मुझे आपकी प्रसन्नता प्राप्त हो । आप सभी के अन्तर्यामी परम पुरुष हो, अतः आपको मेरा नमस्कार है । हे शुभ्रकेश (श्वेतकेश धारी) आपको मेरा फिर नमस्कार है ।

(२) तत्त्व रथमारूढं ब्रह्म पुत्रं तपोनिधिम् । दीर्घकूर्चं विशालाक्षं तं भृगुं प्रणमाम्यहम् ||२||

अर्थ :- आत्म तत्त्व रूपी रथ पर विराजमान ! ब्रह्मा के मानसपुत्र ! तपस्या

के परिपूर्ण मानस भण्डार लम्बी दाढ़ी सुशोभित ! कमल के समान विशाल

नेत्रों वाले हे भृगु जी मैं आपको सादर प्रणाम करता हूं ||२||

(३) योगिध्येयं योगारूढं सर्वलोकपितामहम् । त्रितापपाप हन्तारं तं भृगुं प्रणमाम्यहम् ।।३।।

अर्थ : योगियों द्वारा ध्यान करने योग्य ! योग में आरूढ यानी परिपूर्णयोगी, समस्त लोकों के पितामह (परम पूजनीय) आध्यात्मिक आधिदैविक दुःखों के तथा समस्त पापों के नाश करने वाले उन परम प्रसिद्ध महर्षि भृगु को मैं सादर प्रणाम करता हूं ||३|| जी

(४) सर्वगुणं महाधीरं ब्रह्मविष्णु महेश्वरम् । सर्वलोक भयहरं तं भृगुं प्रणमाम्यहम् । अर्थ सर्वगुणसम्पन्न महा धैर्यशाली, ब्रह्मा विष्णु महेश्वरस्वरूप अर्थात

इनके तुल्य ऐश्वर्य वाले समस्त प्राणियों के भय को दूर करने वाले उन भृगु को में सादर प्रणाम करता हूं ||४||

(५) तेजः पुञ्ज महाकारं गाम्भीर्ये च महोदधिम् । नारायणं

च लोकेशं तं भृगुं प्रणमाम्यहम् ||५|| अर्थ :- तेज का समूह, बड़े से बड़ा आकार बनाने में समर्थ, गम्भीरता के सागर, नारायण के हृदय में श्री वत्स चिह्न के रूप में निवास करने के कारण

नारायण स्वरूप लोकों के ईश्वर उन भृगु जी को मेरा प्रणाम है ||

(६) रूद्राक्षमालयोपेतं श्वेतवस्त्र विभूषितम् । वर मुद्रा धर शान्तं तं भृगुं प्रणमाम्यहम् ।।

अर्थ :- रूद्राक्ष की माला से सुशोभित, श्वेत वस्त्रों से विभूषित तथा वरमुद्रा

धारण किये हुए परम शान्त उन भृगु जी को में सादर प्रणाम करता हूं

(७) सृष्टि संहार कर्त्तारं जगतां पालने रतम् । महा भय हरं देवं तं भृगुं प्रणमाम्यहम् ।।

अर्थ :- सृष्टि तथा उसका संहार करने में समर्थ, संसार के पालन पोषण में तत्पर, बड़े से बड़े पापों के नाश करने में समर्थ उन भृगु देव को मैं सादर प्रणाम करता हूं ॥

(८) बीजं च सर्व विद्यानां ज्ञानागम्याज्ञ ज्ञानद

भक्तानांभयहर्तारम् तं भृगुं प्रणमाम्यहम् ।।

अर्थ :- समस्त विद्याओं के बीज यानी मूलकारण ज्ञान से अगम्य यानी अच्छे जानकारों के ज्ञान की पकड़ में भी न आने वाले, और अज्ञानियों को ज्ञान का प्रकाश करने वाले अपने भक्तों के भय का विनाश करने वाले उन भृगु जी को में सादर प्रणाम करता हूं |

(९) भक्तेभ्यो भक्तिदात्तारं ज्ञान मोक्ष प्रदायकम् प्राणेश्वरं महानन्दं तं भृगुं प्रणमाम्यहम् ।।

अर्थ -अपने भक्तों के लिए भगवान की भक्ति का दान करने वाले तथा

उन्हें ज्ञान और मुक्ति को भी देने वाले प्राणशक्ति प्रदान करने के कारण प्राणों के स्वामी महान् ब्रह्मानन्द में मग्न उन भृगु जी को मैं सादर प्रणाम करता हूं ॥

(१०) अशेष दोषनाशनं तत्वज्ञानप्रकाशकम् । ज्योतिष्प्रद

स्वरूपस्थं तं भृगु प्रणमाम्यहम् ।।

अर्थ: अपने सेवकों के समस्त दोषों का नाश करने वाले, आत्म तत्व के ज्ञान का प्रकाश करने वाले, ज्योतिष शास्त्र या ज्ञान ज्योति को देने वाले अपने आत्म स्वरूप में स्थित उन भृगु जी को मैं सादर प्रणाम करता हूं ।

(११) हरि प्रियामद हरं भक्त मानस शोधनम् । रूद्रभ्रातरं

शुभदं तं भृगुं प्रण हम् ॥

अर्थ :- नारायण की पत्नी लक्ष्मी के मद का हरण करने वाले अपने भक्तों के मन की शुद्धि करने वाले भगवान रूद्र के भ्राता सभी कल्याणों के दाता उन भृगु जी को में सादर प्रणाम करता हूं |

(१२) सर्व मानस भावज्ञं कल्याणपथ दर्शकम् ॥ सर्वकर्म

विपाकज्ञ तं भृगुं प्रणमाम्यहम् ।।

अर्थ :- सब के मनोभावों को जानने वाले कल्याण प्राप्त करने के मार्ग को

दिखाने वाले सभी प्रकार के तथा सभी प्राणियों के कर्मों के फल दिपाक के रहस्य को जानने वाले उन भृगु जी को मैं सादर प्रणाम करता हूं ।

(१३) भृगुस्तोत्रं पठेन्नित्यं भक्तिमान् धीरमानसः । शुभं सर्वमवाप्नोति कीर्तिमाप्तो न संशयः ॥

अर्थ :- मन में धैर्य या स्थिरता धारण करके भक्ति भाव से इस भृगु स्तोत्र का नित्य पाठ करना चाहिये । जो इस प्रकार करता है वह संसार में कीर्ति को प्राप्त होकर सभी प्रकार के शुभ फलों को प्राप्त करता है इस में कोई संदेह नहीं है |

इति श्री भृगुस्तोत्रं हिन्दीव्यारख्या सहितं सम्पूर्णम् ।।

|| ॐ श्री विष्णु रुपाय श्री महर्षि भृगवे नमो नमः ||

मृत्युंजय मन्त्र – Mirtunjay Mantra

बीज मंत्र

प्रसिद्ध मंत्र

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात ।

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मंत्र का इतिहास

श्री बगलामुखी मंत्र – Baglamukhi Mantar

|| स्व सुरक्षा हेतु श्री बगुलामुखि मंत्र ||

अपमृत्युभय, दुर्घटना, रोग, शोक, शत्रुभय और भयंकर कलि और शनि के थपेड़ों से वाण पाने हेतु, कम से कम एक माला तो जरूर पर जरूर जपे। हल्दी की माला श्रेष्ठ केवल चंदन की माला न हो, शेष कोई भी माला लें। सामने ज्योति प्रज्वलित करें, अगरबन्नी लगाएँ, जल रखें और निम्न मंत्र का जप करके सामने रखे जल में फूंक मारे और उसे पी लें।

ॐ ह्लीम् बॅगुलामुखि सर्वदुष्टानाम्

वाचम्- मुखम् पदम्-स्तम्भय जिह्वां कीलय

बुद्धिम् नाशय ह्लीम् ॐ ( स्वाहा )

जप के उपरांत एक माला (रुद्राक्ष की माला पर) श्री त्रिपूर भैरवी माता के निम्न मंत्र का जप भी करें।

ॐ ह्रीं ग्लौम् ग्लौम् हंसौं नमः

महा मृत्युंजय मन्त्र – Maha Mirtunjay Mantra

बीज मंत्र

प्रसिद्ध मंत्र

ॐ हौं जूँ सः । ॐ भूर्भुवः स्वः । ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । स्व: भुवः भूः ॐ । सः जूँ हौं ॐ ।

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मंत्र का इतिहास

गायत्री मंत्र- Gyatri Mantra

बीज मंत्र

|| ॐ भूर्भुवः स्वः ||

प्रसिद्ध मंत्र

|| ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।।  

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मंत्र का इतिहास

श्री प्रेतराज जी की आरती

जय प्रेतराज राजा, जय प्रेतराज राजा। संकट मोचन वीरा, संकट मोचन वीरा। जय जय अधिराजा, जय प्रेतराज राजा।

रूप भयंकर ऐसा, थर स्वामी थर थर थर काल करें। काल करे जिन पिशाच सब काँपे, जिन्न पिशाच सब काँपे

जिनको बेहाल करे, जय प्रेतराज राजा।

हाथ में चक्र तिहारे, मुकुट निराला है। स्वामी मुकुट निराला है सुयश तुम्हारा निर्मल, सुयश तुम्हारा निर्मल

गल मोतिन माला है, जय प्रेतराज राजा। लीला बखानूँ कैसे, महिमा निराली है। तिहारी

महिमा निराली अज्ञान अन्धेरा मिटा, अज्ञान अन्धेरा मिटा। करते उजियाली है, जय प्रेतराज राजा।

चित्त चरणों में लगा कर तिहारा स्नान करें । स्वामी तिहारा स्नान करें । पूजा फूल चढ़ावे, पूजा फूल चढ़ावे । आरती ध्यान करें, जय प्रेतराज इच्छा स्वामी करते, संकट पूरी करते संकट हर हर राजा । लेते । लेते । दुःख दारिद मिटाते, दुःख दारिद मिटाते सुख सम्पति देते, जय प्रेतराज राजा ।

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